जिनका कोई नहीं, उनके भी ‘मोक्ष’ बने आशीष ठाकुर… अब तक एक लाख लोगों का कर चुके अंतिम संस्कार

मध्य प्रदेश के जबलपुर को संस्कारधानी के नाम से जाना जाता है क्योंकि यहां के लोगों में संस्कार अलग ही दिखाई देते हैं. यही वजह है कि आज एक ऐसे व्यक्तित्व पर हम गर्व कर सकते है जिसने न सिर्फ शहर बल्कि पूरे प्रदेश में मानवता की सेवा की एक अनूठी परिभाषा लिखी है. यह नाम है आशीष ठाकुर और उनके द्वारा संचालित संस्था का नाम है ‘मानव मोक्ष’, जो पिछले 25 सालों से उन लोगों का अंतिम संस्कार कर रहे हैं जिनका इस दुनिया में कोई नहीं बचा.
आशीष ठाकुर की यह यात्रा साल 2000 की एक सुबह से शुरू होती है. तब वह जबलपुर मेडिकल कॉलेज में पार्ट टाइम काम करते थे. उनके पिता पुलिस विभाग में आरक्षक थे और पढ़ाई के साथ-साथ आशीष मेडिकल कैंपस में पर्ची काटने का कार्य करते थे. एक दिन सुबह मेडिकल परिसर के पास उन्होंने देखा कि एक लावारिस शव को कुत्ते नोंच रहे थे, लेकिन कोई पास जाने की हिम्मत नहीं कर रहा था. उस दृश्य ने उन्हें झकझोर दिया, लेकिन मन में डर भी था.
बाद में दोपहर को जब वही दृश्य उन्होंने दोबारा देखा, तो वह खुद को रोक नहीं पाए. वह मेडिकल के पोस्टमार्टम हाउस पहुंचे और वहां के कर्मचारियों की मदद से उस शव का अंतिम संस्कार कराया. उनकी जेब में उस समय सिर्फ 200 रुपये थे, लेकिन उसी से उन्होंने कफन और लकड़ियां खरीदी और गड्ढा खुदवाकर विधिपूर्वक अंतिम संस्कार किया. यहीं से उनकी सेवा यात्रा की शुरुआत हुई.
‘मानव मोक्ष’ संस्था
आज आशीष ठाकुर और उनकी संस्था ‘मानव मोक्ष’ ने 1 लाख से अधिक लावारिस या परित्यक्त शवों का अंतिम संस्कार किया है. ये सिर्फ आंकड़े नहीं हैं, बल्कि हर एक शव एक कहानी कहता है बेबसी की, अकेलेपन की और समाज की अनदेखी की. लेकिन आशीष इन कहानियों के अंत को सम्मानजनक बनाने का प्रयास करते हैं. मानव मोक्ष संस्था का कार्य सिर्फ हिन्दू रीति-रिवाजों तक सीमित नहीं है. आशीष ठाकुर ने मुस्लिम, सिख, ईसाई सभी धर्मों के अनुसार अंतिम संस्कार किए हैं.
कोरोना में 17000 लोगों का किया अंतिम संस्कार
उनका मानना है कि इंसानियत का कोई धर्म नहीं होता और अंतिम विदाई हर किसी का अधिकार है. उन्होंने मुस्लिम महिलाओं तक के शवों का रीति-रिवाज से कफन-दफन किया है. आशीष ने बताया की कोरोना महामारी के समय जब अपनों ने अपनों का साथ छोड़ दिया, उस समय आशीष ठाकुर न सिर्फ एक भाई, बेटा या पिता की भूमिका में आए, बल्कि उन्होंने 17000 से अधिक शवों का अंतिम संस्कार किया.
‘प्रशासन से नहीं मिला सहयोग’
यह वो समय था जब मृतकों को छूने तक से लोग डरते थे, लेकिन आशीष ने एक दिन में 100 से अधिक शवों का अंतिम संस्कार कर एक अविश्वसनीय साहस का परिचय दिया. उनके पास बाकायदा एक रजिस्टर मेंटेन है, जिसमें हर शव का विवरण, समय, स्थान, धर्म और रीति-रिवाज दर्ज हैं. यह न सिर्फ पारदर्शिता का प्रतीक है, बल्कि भावनात्मक जुड़ाव का भी. इतने सालों की अथक सेवा के बावजूद आशीष ठाकुर को आज तक किसी प्रशासनिक संस्था से कोई बड़ी मदद नहीं मिली.
कुछ स्थानीय लोग कभी-कभार आर्थिक सहायता करते हैं, लेकिन वह खुद मानते हैं कि अगर प्रशासन साथ दे तो सड़कों पर रहने वाले लावारिसों की भी देखभाल और बेहतर तरीके से की जा सकती है. वर्तमान में वह 45 से अधिक लोगों को रेन बसेरा में रखकर उनकी देखभाल कर रहे हैं. उनके लिए भोजन, दवा और मानवीय सम्मान की व्यवस्था करते हैं. आशीष ठाकुर केवल अंतिम संस्कार तक ही सीमित नहीं रहते. वह प्रत्येक मृतक की अस्थियां तीसरे दिन नर्मदा नदी में विधिवत विसर्जित करते हैं.
आश्रम में करते सामूहिक भोजन
13वें दिन अपने आश्रम में पूजन-पाठ और सामूहिक भोजन का आयोजन करते हैं, जिससे आत्मा को शांति मिले. हाल ही में जबलपुर की रानीताल यादव कॉलोनी के निवासी अक्षय नामदेव ने एक वृद्धाश्रम में रह रहे बुजुर्ग के निधन की सूचना पाई, तो उन्होंने सबसे पहले आशीष ठाकुर को फोन किया. जहां वह उस बुजुर्ग को अपने वाहन में लेकर आए. आशीष ने तुरंत प्रतिक्रिया देते हुए उस बुजुर्ग का हिंदू रीति-रिवाज से बेटा बनकर अंतिम संस्कार किया. यह दर्शाता है कि अब लोग उन्हें सिर्फ एक समाजसेवी नहीं बल्कि ‘अपने जैसा’ मानने लगे हैं.
आशीष ठाकुर का यह संकल्प ‘क्या दो गज कफन और चंद लकड़ियां देकर क्या विदा नहीं कर सकते हम अपने वजूद को?’ आज एक आंदोलन बन चुका है. ‘मानव मोक्ष’ अब सिर्फ एक संस्था नहीं, एक सोच है, एक भाव है, जो सिखाता है कि अंतिम यात्रा भी गरिमा से हो सकती है. भले ही उस व्यक्ति का कोई न हो. आज की दुनिया में जहां लोग अपनों से भी दूर हो जाते हैं, वहां आशीष ठाकुर जैसे लोग इस समाज की असली रीढ़ हैं. उन्हें सिर्फ सम्मान नहीं, सहयोग और समर्थन की जरूरत है ताकि उनका यह कार्य और भी व्यापक बन सके.