कतर पर हमले के बाद अरब देशों की खामोशी, क्या इजराइल के खिलाफ दिखा पाएंगे दम?

इजराइल ने मंगलवार को कतर की राजधानी दोहा में करीब 10 हमले किए. इन हमलों में 6 लोगों की मौत हुई है, जिसमें एक कतरी सुरक्षाबल भी शामिल है. इसे इजराइल की ओर से पार की गई एक नई रेड लाइन माना जा रहा है, जिसमें पहली बार उसने किसी GCC (Gulf Cooperation Council) देश पर हमले की बात खुले तौर पर स्वीकार की है.
कतर ने इजराइल के इस हमले की कड़ी निंदा की है और कहा कि वह इसका जवाब देगा. पर कैसे? लंदन के किंग्स कॉलेज के स्कॉलर और मिडिल ईस्ट एक्सपर्ट एंड्रियास क्रेग ने बताया, “शॉर्ट में कहे तो कतर उन साधनों का इस्तेमाल करेगा जिन्हें वह सबसे बेहतर जानता है, कूटनीति और कानून.” इसकी संभावनाएं न की बराबर हैं कि कतर भी ईरान की तरह अपनी धरती पर हुए इजराइल हमले का जवाब देगा या ऐसा जवाब दे पाने की वह स्थिति में है भी या नहीं.
इस हमले के बाद अरब के सभी देशों ने कतर का समर्थन और इजराइल की निंदा की है. लेकिन अभी तक इजराइल के हमलों का जवाब नहीं दिया जा सका है, सवाल बना हुआ है कि क्या ईरान जैसा दम ताकतवर अरब देश दिखा पाएंगे? इसका जवाब ढूंढने के लिए हमें अरब देशों और ईरान के बीच के फर्क को समझना होगा.
अरब देशों की इजराइल को लेकर नीतियां
ईरान और अरब देशों (खासकर सुन्नी बहुल देशों जैसे सऊदी अरब, UAE, मिस्र) की भूमिका, प्राथमिकताएं और क्षमताएं एक जैसी नहीं हैं. ये देश अमेरिका के अलाय हैं और अमेरिका ही इनको सुरक्षा की गारंटी देता है. हालांकि इस हमले के बाद अरब देशों के नेता जरूर अमेरिका की सुरक्षा गारंटी का फिर से आकलन कर रहे होंगे.

सऊदी, कतर, UAE देशों की सेनाओं के पास कई एडवांस हथियार हैं. जिनके इस्तेमाल पर उनकी की प्राथमिकताएं क्या हैं, ये मायने रखेगा. इन देशों ने विजन 2030 जैसे महत्वाकांक्षी योजना और कई आर्थिक सुधार प्रोग्राम शुरू किए हैं, जो शांति और स्थिरता पर निर्भर करते हैं.
साथ ही इजराइल अमेरिका का सबसे बड़ा अलाय माना जाता है, ऐसे में इजराइल से युद्ध इन देशों के रिश्ते अमेरिका से खराब कर सकता है. अरब देश अमेरिका से अलगाव नहीं चाहते हैं, क्योंकि ये कदम उन्हें आर्थिक अलगाव और ईरान से असुरक्षा के डर में धकेल सकता है.
ईरान नीति में क्या है फर्क?
ईरान एक गैर-अरब यानी फारसी, शिया मुस्लिम बहुल देश है जिसकी विदेश नीति का लक्ष्य इस्लामिक क्रांति का विस्तार और इजराइल-अमेरिका का विरोध है. ईरान की बड़ी ताकत उसके प्रॉक्सी गुटों, जैसे हिजबुल्लाह, हूती, इराकी शिया मिलिशिया में है, जो उसके लिए डेनिएबल प्लॉसिबल (deniable plausible) के तौर पर काम करते हैं यानी वह कार्यवाई कर भी सकता है और उसमें अपनी संलिप्तता को खारिज भी कर सकता है.

वहीं इजराइल को किसी आर्थिक अलगाव का भी डर नहीं, क्योंकि पहले से उसपर आर्थिक प्रतिबंध हैं और उसके पास हथियार या तो खुद विकसित किए हुए हैं या रूस की मदद से बनाए हुए हैं. ऐसे में ईरान को कई मोर्चों पर इजराइल पर हमला करने के लिए अरब देशों के मुकाबले ऐज हासिल है.
हमास को लेकर अरब देश और ईरान की सोच में फर्क
अरब देश हामास को अपनी सीधी जिम्मेदारी नहीं मानते हैं. हामास का समर्थन करना और उसके लिए सीधे युद्ध में उतरना दो अलग-अलग बातें हैं. हालांकि अपनी संप्रभुता के उल्लंघन को लेकर इजराइल को जवाब दिया जा सकता है.

हाल में देखा गया है कि अरब देशों की प्राथमिकता फिलिस्तीनियों की मदद करना रही है, न कि खुद इजराइल के साथ एक पूर्ण युद्ध शुरू करना. उनके लिए आर्थिक विकास और Regional स्थिरता ज्यादा जरूरी है. वहीं ईरान की क्रांति का आधार ही अमेरिका और इजराइल का विरोध है. ईरान के सुप्रीम लीडर ने बार-बार दोहराया है कि अमेरिका बड़ा शैतान है और इजराइल छोटा, दोनो को खत्म करना शांति के लिए जरूरी है.
अमेरिका से संबंध बिगाड़ने का रिस्क क्यों नहीं ले सकते अरब देश?
अरब देशों की अमेरिका पर निर्भरता इराक के शासक सद्दाम हुसैन के कुवैत पर हमले के बाद से बढ़ी है. वहीं ईरान की क्रांति को अरब देश अपने लिए खतरा मानते हैं, क्योंकि वह उनके किंगडम के बुनियादी ढांचे के लिए सीधे चुनौती है.
इन देशों के लिए ईरान एक बड़ा क्षेत्रीय खतरा है, इजराइल से ज्यादा कहना गलत नहीं होगा. वे ईरान के प्रभाव (यमन, इराक, सीरिया आदि में) को रोकना चाहते हैं. जिसके लिए अमेरिका की उनको जरूरत है.