क्या है इस्लामी TAX, किन मुसलमानों पर होता है लागू, क्या जकात का पैसा गैर-मुस्लिम को दिया जा सकता है?

मुस्लिम समुदाय के लोग ईद से पहले अपने जान-माल का टैक्स निकालते हैं. संपत्ति के लिए निकाले जाने वाले टैक्स को जकात कहा जाता है तो जान के लिए फितरा निकाला जाता है. जकात इस्लाम के पांच मूलभूत सिद्धांतों में से एक है. इस्लाम धर्म के मानने वाले मुस्लिमों पर जकात निकालना फर्ज करार दिया गया, लेकिन उसके लिए कुछ शर्तें भी हैं. इस्लाम में जकात के रूप में टैक्स प्रणाली की शुरुआत मानी जाती है, लेकिन सवाल उठता है कि जकात किन मुस्लिमों को निकालना चाहिए और उस पैसे को क्या किसी गैर-मुस्लिम को भी दिया जा सकता है.
जकात का शाब्दिक अर्थ ‘शुद्धिकरण’ होता है. इस्लाम धर्म को मानने वाला हर मुसलमान जकात से गरीबों और जरूरतमंदों की मदद करने का काम करते हैं. इस्लाम धर्म में सबसे ज्यादा जकात रमजान महीने में निकाला जाता है. इस्लाम में जकात एक प्रकार का दान होता है, जो एक तरह का संपत्ति का टैक्स है. कुरान में नमाज के बाद जकात अदा करने की प्राथमिकता दी गई है.
इस्लाम धर्म के मुताबिक जब पैगंबर मोहम्मद मदीना गए और उन्होंने इस्लामिक राष्ट्र व्यवस्था की शुरुआत की, तब उस देश में जकात प्रणाली शुरू की गई थी.इस्लामिक शरीयत में जकात के बारे में कहा गया है कि अल्लाह द्वारा दिए गए संपत्ति का कुछ हिस्सा निकालकर उसे जरूरतमंद लोगों की मदद करें.
जकात निकालना किन मुस्लिमों पर जरूरी
जकात जरूर मुसलमानों के लिए फर्ज करार दी गई है, लेकिन किस तरह से निकालनी है और कितनी देनी चाहिए, इसको लेकर तरह-तरह के सवाल हैं. इस्लामी विचारक कहते हैं कि मुसलमानों के पवित्र धर्म ग्रंथ कुरान में ज़कात के बारे में दिशा निर्देश दिए गए हैं, जैसे कि जकात कितना निकाला जाना चाहिए, इसका भुगतान कैसे करना है. इसका पैसा किसे दिए जाना चाहिए.
इस्लाम में साफ तौर पर कहा गया है कि एक साल से अधिक समय तक रखे सोने के गहने और नकदी के अलावा शेयर, प्राइज बॉन्ड और वित्तीय मूल्य वाले को ज़कात अदा करना जरूरी है. दैनिक आवश्यकताओं को पूरा करने के बाद जिस भी मुसलमान के पास 52.2 तोला चांदी या फिर साढ़े 7 तोला सोना है या इसके समकक्ष कोई व्यावसायिक वस्तु का मालिकाना हो तो उस पर जकात निकालना जरूरी हो जाता है.
इस्लाम धर्म के मुताबिक अगर इतनी मात्रा के बराबर संपत्ति अगर एक वर्ष से ज्यादा समय तक किसी व्यक्ति के पास है, तो उसे ज़कात देना होगा. ऐसे में मान लीजिए कि किसी व्यक्ति के पास 7.5 तोला से थोड़ा अधिक सोना है. अगर मान लें कि वह उस सोने को बाजार में 4 लाख रुपए में बेच सकता है.इस हिसाब से उसके पास चार लाख रुपये हैं तो उस पर जकात निकालना जरूरी हो जाता है.
संपत्ति का कितना हिस्सा निकलता है
किसी भी मुस्लिम के पास 52.2 तोला चांदी या फिर साढ़े 7 तोला सोना हैं, उस पर किसी तरह का कोई कर्ज नहीं है तो उस पर जकात फर्ज हैं. ऐसे में उसे अपनी सारी संपत्ति पर ढाई फीसदी के हिसाब से ज़कात राशि देनी होगी. व्यावसायिक उद्देश्यों के लिये रखी गई ज़मीन और फ्लैटों या खेत पर भी ज़कात देना होगा, लेकिन लेकिन घर बनाने के लिये रखे गये ज़मीन पर ज़कात नहीं देना होता है.
संपत्ति अगर निवेश के लिहाज से ली गई है तो उस पर भी जकात देना होता. कारोबार में रुपए न लगा कर अगर उसे ऐसे ही रख दिया जाता है, तो भी उस पर जकात लागू होगा. इसके अलावा बैंक में जमा पैसे पर ही जकात देना होता, लेकिन उसी पैसे पर जिस पर साल गुजर गया हो.
जकात देने की कोई सीमा तय नहीं
जकात अदा करने के लिए कोई तय समय सीमा निर्धारित नहीं है. इसके लिए जब आपके पास धन जमा होने के एक वर्ष बाद और निसाब (एक न्यूनतम राशि, जो किसी मुसलमान के पास जकात के लिए होनी ही चाहिए) की सीमा तक पहुंचने और चंद्र वर्ष (354 दिनों) तक रखने के बाद मुसलमान को जकात देना चाहिए.
जकात का पैसा किसे दिया जा सकता है?
जकात का पैसा निकालने के बाद गरीब असहाय मुस्लिम, कर्ज में दबे किसी व्यक्ति को, मुसाफिर को, गरीब धर्म उपासक. गरीब रिश्तेदार, इस्लाम को अपनाने वाले लोग को दिया सकता है. इस्लाम में कहा गया है कि जकात निकालने के बाद सबसे पहले अपने परिवार और रिश्तेदार में तलाशे, उस पर पहले जरूरी है. इसके अलावा कोई अगर कर्ज में दबा हुआ है, उसे भी जकात की जा सकती है. मदरसे में गरीब बच्चों की तालीम के लिए भी जकात के पैसे को दे सकते हैं.
हालांकि, साथ ही कहा गया है कि जकात का पैसा अगर किसी को दे रहे हैं, उसके लिए कहा गया है कि दाहिने हाथ से दे रहे हैं तो बाए हाथ को भी खबर नहीं होनी चाहिए. इसका मतलब है कि जकात जिसे भी दें, उसे बहुत खामोशी के साथ दें. प्रचार-प्रचार करके नहीं देना चाहिए.
जकात का पैसा किसे नहीं देना चाहिए
जकात निकालने वाला को अपने माता-पिता, दादा-दादी, जीवनसाथी और बच्चे को जकात देने की मनाही की गई है. इसके अलावा पैगम्बर (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के वंशज को भी जकात लेने से मना किया गया है. नौकर अगर गरीब माने जाने की शर्तों को पूरा न करता है तो उसे भी जकात नहीं देना चाहिए. अल्लाह के मार्ग पर लड़ने वाले को भी जकात नहीं देना चाहिए. जकात मुस्लिम धर्म के लोगों को ही दी सकती है.
जकात का गैर-मुस्लिम को देना चाहिए?
सवाल उठता है कि गैर-मुसलमानों को ज़कात दी जा सकती है? अधिकांश लोगों के अनुसार इसका संक्षिप्त उत्तर है नहीं. हालांकि,इस पर विस्तार से चर्चा करने के जरूरत है, लेकिन ज्यादातर विशेषज्ञ इस बात पर सहमत हैं कि मुसलमानों को ज़कात लेने के साथ-साथ देना भी चाहिए. दान के दूसरे रूपों की तरह सदक़ा भी मुसलमानों और गैर-मुसलमानों दोनों को दिया जा सकता है. ज़कात पाने वालों की पात्रता के बारे में कुछ निश्चित जकात नियम हैं.
गैर मुस्लिम को जकात देना जायज नहीं है. जकात देने का एक कारण मुस्लिम उम्माह के बीच मजबूत बंधन बनाना और मुस्लिमों के बीच सद्भाव को बढ़ाना है. इसलिए कई लोगों का मानना है कि जकात सिर्फ एक मुस्लिम को दूसरे मुस्लिम को देने की अनुमति है. हालांकि, कुछ अपवाद मिलते हैं, जैसे जब किसी गैर-मुस्लिम को ऐसी स्थिति में त्वरित सहायता की आवश्यकता होती है जो उसके लिए जीवन और मृत्यु के बीच जूझ रहा है. दूसरा यह कि गैर-मुस्लिम, जिनका मन इस्लाम की ओर आकर्षित है, उसे भी जकात दी सकती है. साथ ही कहा गया है कि इस्लाम में गैर-मुस्लिमों के लिए दान के अन्य तरीके भी उपलब्ध हैं, उसे रास्ते को अपनाना चाहिए.
मुसलमान और गैर-मुसलमान दोनों ही दान प्राप्त कर सकते हैं. इस्लाम मुसलमानों को यह भी सलाह देता है कि उन्हें आम तौर पर गरीबों को खाना खिलाना चाहिए, चाहे वे मुसलमान हो या नहीं. इसके अलावा, इस्लाम एक अच्छे पड़ोसी होने के महत्व पर जोर देता है, चाहे आपके पड़ोसी मुसलमान हो या नहीं. इस तरह इस्लाम में गैर-मुस्लिम की मदद करने के लिए कहता है?