हरियाणा

चकाचौंध भरे शादी समारोहों की खर्चीली परंपराओं के बीच भिवानी निवासी पवन मस्ता की अनूठी पहल

पीले चावलों की पोटली में बेटे की शादी का निमंत्रण दे रहे भिवानी निवासी  भारतीय संस्कृति में पीले चावल सौभाग्य, पवित्रता व समृद्धि का प्रतीक

पवन शर्मा
भिवानी(ब्यूरो): आधुनिक समय में जहां शादी समारोह में भारी भरकम खर्च किया जाता है, वही शादी के निमंत्रण को लेकर भी आधुनिकता आई है। लोग बड़े-बड़े अत्याधुनिक चमकीले व लाईट वाले शादी के कार्ड बनवाकर अपने रिश्तेदारों, भाईचारे व दोस्तों को बांटते है। ऐसे में शादी से जुड़े हुए संस्कार विलुप्त से होते नजर आते है। इसी बात को देखते हुए भिवानी के मस्तान गली डोबी तालाब निवासी पवन मस्ता ने अपने बेटे की शादी के लिए परंपरागत मूल्यों को अपनाते हुए बेटे की शादी का निमंत्रण अनूठे तरीके से दिया। उन्होंने एक पोटली में पीले चावल भरकर शादी का निमंत्रण सभी अतिथियों को दिया है।
पवन मस्ता का कहना है कि भारतीय परंपरा रही है कि पीले चावल पवित्रता, सौभाग्य व समृद्धि का प्रतीक है। आज से दो दशक पहले पीले चावल कागज में लपेटकर या पोटली में बांधकर निमंत्रण के लिए अतिथियों के घर जाकर उन्हे दिए जाते थे तथा नवविवाहित जोड़े को सुखी जीवन के आर्शीवाद मांगने की कामना अतिथियों से की जाती थी। उन्होंने इसी बात को आगे बढ़ाते हुए अपनी परंपरा को अगली पीढी तक पहुंचाने के उद्देश्य से पोटली में चावल भरकर अपने दोस्तों, रिश्तेदारों व अन्य अतिथियों को भेंट किए है, ताकि वे भारतीय परंपरा के अनुसार उनका निमंत्रण पत्र स्वीकार कर शादी में पहुंचे। उन्होंने बताया कि पहले समय में शादी से पहले मेल (प्रतिभोज) कार्यक्रम होता था। उसके लिए पीले चावल से निमंत्रण दिया जाता था तथा बारात के निमंत्रण के लिए सुपारी का प्रयोग होता था। पवन मस्ता के बेटे नगर पार्षद आकाश मस्ता की शादी अंबाला की शिक्षक ज्योति से दो नवंबर को होनी है। इसके लिए 30 नवंबर को मेल कार्यक्रम का न्यौता पवन मस्ता पोटली में चावल भरकर अतिथियों को दे रहे है।
गौरतलब है कि पवन मस्ता द्वारा भारतीय संस्कृति का अनुसकरण करते हुए जिस प्रकार से कम खर्च व समृद्धि के प्रतीक चावलों की पोटली के रूप में जो निमंत्रण दिया जा रहा है, वह अपने आप में अनूठा है। उन्होंने इस पीले चावल की पोटली पर ही वर-वधु के नाम व प्रतिभोज तथा शादी की तारीख, समय व स्थान का विवरण भी लिख रखा है। जो आज के महंगाई के समय में ना केवल खर्च बचाने वाला है, बल्कि सांस्कृतिक परंपराओं के निर्वहन का भी प्रतीक है।

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