स्पाइसजेट और LG को झटका, दिल्ली HC ने विदेशी कर्मचारियों के PF मामले में सुनाया ऐतिहासिक फैसला

दिल्ली हाई कोर्ट ने हाल ही में 2008 और 2010 की उन अधिसूचनाओं की वैधता बरकरार रखी, जिनमें भारत में कार्यरत गैर-बहिष्कृत अंतर्राष्ट्रीय कर्मचारियों के लिए कर्मचारी भविष्य निधि (EPF) में नामांकन कराना अनिवार्य किया गया था. कोर्ट ने स्पाइसजेट और LG इलेक्ट्रॉनिक्स की रिट याचिकाओं को खारिज कर दिया. दिल्ली हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश देवेंद्र कुमार उपाध्याय और जस्टिस तुषार राव गेडेला की पीठ ने कहा कि केंद्र सरकार को EPF योजना, 1952 का विस्तार विदेशी नागरिकों तक करने का अधिकार है और भारतीय और विदेशी कर्मचारियों के बीच वर्गीकरण संवैधानिक रूप से स्वीकार्य है. कोर्ट ने कहा, हम पहले ही यह मान चुके हैं कि उक्त अधिसूचनाओं में कोई कानूनी त्रुटि नहीं है.
दरअसल, पहली अधिसूचना- 1 अक्टूबर, 2008 की जीएसआर 706(ई)- ने EPF योजना, 1952 में अनुच्छेद-83 को शामिल किया, जिससे अंतर्राष्ट्रीय कर्मचारियों के लिए विशेष प्रावधान किए गए. दूसरी अधिसूचना- 3 सितंबर, 2010 की जीएसआर 148(ई)- ने अनुच्छेद 83 को प्रतिस्थापित किया, जिसमें अंतर्राष्ट्रीय कर्मचारी की परिभाषा दी गई. एसएसए मार्ग के माध्यम से बहिष्कृत कर्मचारी श्रेणी को अलग किया गया और सदस्यता और अंशदान को शामिल होने की तिथि से अनिवार्य कर दिया गया.
स्पाइसजेट की याचिका में क्या कहा गया?
स्पाइसजेट की याचिका में 14 मार्च 2011 के एक डिमांड नोटिस का भी विरोध किया गया, जिसमें अंतर्राष्ट्रीय कर्मचारियों के लिए बकाया राशि जमा करने की आवश्यकता थी और 15 मार्च 2012 के एक समन में धारा 7ए के तहत अंशदान के निर्धारण के लिए रिकॉर्ड मांगे गए थे. LG इलेक्ट्रॉनिक्स ने इसी ढांचे को चुनौती दी थी. याचिकाओं में तर्क दिया गया है कि अनुच्छेद 83, वेतन की परवाह किए बिना विदेशी नागरिकों पर अनिवार्य अंशदान लागू करके भारतीय और विदेशी कर्मचारियों के बीच गैरकानूनी रूप से भेद करता है, जबकि ₹15,000 प्रति माह से अधिक वेतन पाने वाले भारतीय कर्मचारी अनिवार्य रूप से इसके दायरे में नहीं आते.
उन्होंने निकासी नियम (58 वर्ष की आयु) की भी आलोचना की और कहा कि यह उन प्रवासियों के लिए अव्यवहारिक है जो आमतौर पर भारत में कम समय के लिए काम करते हैं. यह भी दावा किया गया कि अनुच्छेद-83 प्रत्यायोजित शक्ति का अतिक्रमण करता है क्योंकि अधिनियम में कर्मचारी की परिभाषा राष्ट्रीयता के आधार पर भेद नहीं करती है.
इन मामलों की एक साथ सुनवाई की गई क्योंकि इनमें 2008/2010 की अधिसूचनाओं की वैधता, EPF अधिनियम की धारा 5 और 7 के तहत प्रत्यायोजित विधान के दायरे और अंतर्राष्ट्रीय श्रमिकों को अंशदान और निकासी के लिए एक अलग वर्ग के रूप में मानने की अनुमति जैसे कानूनी प्रश्न उठाए गए थे. न्यायालय ने अनुच्छेद 14 के कथित उल्लंघन और अंतर्राष्ट्रीय श्रमिकों पर लागू निकासी की शर्त की तर्कसंगतता से संबंधित मुद्दों पर विचार किया.
कोर्ट ने क्या-क्या कहा?
अपने निर्णय की व्याख्या करते हुए कोर्ट ने पारंपरिक अनुच्छेद-14 के मानदंड को लागू किया. स्वीकार्य वर्गीकरण का समर्थन किया. इसी तरह के मुद्दों पर कर्नाटक हाई कोर्ट के विपरीत एकल-न्यायाधीश के दृष्टिकोण से स्पष्ट रूप से असहमत था. कोर्ट ने कहा, हम पहले ही ऊपर यह मान चुके हैं कि इस मामले में वर्गीकरण का एक उचित आधार है, जो आर्थिक दबाव पर आधारित है और कर्नाटक हाई कोर्ट द्वारा दिए गए निर्णय में इस तरह का विचार नहीं है.
कोर्ट ने निकासी की शर्त को चुनौती देने वाली याचिका पर भी विचार किया. अनुच्छेद-83 के अंतर्राष्ट्रीय दायित्वों की पृष्ठभूमि और सामाजिक सुरक्षा समझौतों (SSA) की भूमिका पर ध्यान दिया. कहा कि जहां तक याचिकाकर्ता का यह कहना है कि अनुच्छेद 69 को विदेशी कर्मचारियों पर लागू करने के लिए प्रतिस्थापित करना अनुचित है, हम केवल यह देख सकते हैं कि योजना में अनुच्छेद 83 को भारत के अंतर्राष्ट्रीय संधि दायित्वों को लागू करने के लिए जोड़ा गया है और अंतर्राष्ट्रीय संधि में प्रवेश करना एक संप्रभु विशेषाधिकार है.
इसलिए, अगर इस तरह के प्रावधान को रद्द कर दिया जाता है तो यह SSA में प्रवेश करने और इसे लागू करने के कानूनी आधार को खत्म करने के बराबर होगा. आखिर में कोर्ट ने निर्णायक निर्देश दिए और अनुप्रवाह उपायों को भी बरकरार रखा. कोर्ट ने यह भी दर्ज किया कि चूंकि मूल अधिसूचनाएं यथावत हैं, इसलिए बाद के परिपत्रों और नोटिसों को दी गई चुनौतियां भी विफल होनी चाहिए. इस तरह रिट याचिकाएं खारिज कर दी गईं.




