बिखरी लाशें, रोती आवाजें…वो नरसंहार जिसका बदला 21 साल बाद पूरा हुआ, पढ़ें जलियांवाला बाग हत्याकांड की कहानी

आज भी जलियांवाला बाग में शहीदों को नमन करने के लिए पहुंचती भीड़ के स्वर प्रवेश द्वार पर ही स्वतः शांत हो जाते हैं. उस तारीख की यादें लोगों को विचलित करती लगती हैं. कतार में दाखिल हो रहे लोगों की गति अनायास ही मंद पड़ती है और मन बोझिल हो जाता है. वह बैसाखी का दिन था. बीच में एक सदी से ज्यादा का फासला है तो क्या? घाव के गहरे निशान अभी मौजूद हैं. पुरखों को मिली यातना और दर्द की टीसें आज की पीढ़ियों को बेचैन करती हैं. 13 अप्रैल 1919, जलियांवाला बाग के नरसंहार की मनहूस और दिल दहलाने वाली तारीख. क्या हुआ था तब?
आजादी के दीवानों पर बरसी गोलियों और देश पर कुर्बान हो जाने वालों की गिनती मुमकिन नहीं थी. वहां एक अनाथ युवक वालंटियर के तौर पर लोगों को पानी पिलाने के लिए तैनात था. उसने शहीदों के लहू से सनी मिट्टी मुट्ठी में समेट बदले की कसम खाई थी. 21 वर्षों बाद उसने यह कसम लंदन में पूरी की थी और बारह साल के एक बालक ने भी इस पवित्र मिट्टी को घर के पूजा स्थल में संजोया था. देश की आजादी के लिए फांसी का फंदा चूमने वाले उस शहीद-ए-आज़म का जिक्र ही लोगों को रोमांचित कर देता है.
रौलट एक्ट का हुआ था प्रबल विरोध
वह गुलामी का दौर था. अंग्रेजों की मनमानी और जुल्म ज्यादती का अंधियारा बढ़ता ही जा रहा था. लेकिन उस अंधेरे का सीना चीरने के लिए आजादी के मतवाले जूझ रहे थे. नतीजों और अपने प्राणों की परवाह उन्हें नहीं थी. अपने राज का सूरज न डूबने के गुरुर में अंग्रेज दमन की किसी हद तक जाने की तैयारी में थे. बिना मुकदमा चलाए किसी को बंदी बनाए रखने का अधिकार रौलट ऐक्ट के जरिए उन्होंने हासिल कर लिया था.
इसके विरोध में अप्रैल 1919 के पहले हफ्ते में जनता सड़कों पर थी. पंजाब में इस कानून के खिलाफ हुए प्रदर्शनों को पुलिस ने सख्ती से कुचला था. लेकिन भयभीत होने की जगह लोगों का गुस्सा और तीव्र हुआ. आंदोलनकारियों और पुलिस में हिंसक झड़पों और गिरफ्तारियों का सिलसिला जारी था.
जनता को सबक सिखाने की पूरी तैयारी
पंजाब में रौलट एक्ट के खिलाफ सड़कों पर उमड़ती जनता को सबक सिखाने के लिए लेफ्टिनेंट गवर्नर माइकल फ्रैंसिस ओ डायर ने कमर कस ली थी. कानून व्यवस्था की कमान ब्रिगेडियर जनरल रेनाल्ड एडवर्ड हैरी डायर को सौंप कर गवर्नर ने तनाव और बढ़ा दिया. हैरी डायर ने भीड़ इकट्ठा करने पर पाबंदी के साथ ही ताबड़तोड़ गिरफ्तारियों का सिलसिला शुरू करके दहशत पैदा करने की कोशिश की. लेकिन जनता झुकने को तैयार नहीं थी. 13 अप्रेल 1919 को अमृतसर के जालियांवाला बाग में एक बड़ी सभा आयोजित की गईं. इसमें हजारों लोग मौजूद थे. सभा स्थल पर आमद और निकास का एक ही रास्ता था. प्रशासन-पुलिस-सेना देशभक्तों को सबक सिखाने पर आमादा थे. कमान संभाल रहे हैरी डायर ने इस मौके पर बर्बरता की हदें पार कर दीं थीं. शांति से चल रही सभा में मौजूद भीड़ पर अचानक गोली वर्षा कर उसने लाशों के ढेर लगा दिए थे. इस नरसंहार में मरने वालों की गिनती मुमकिन नहीं हो सकी थी.
शांतिपूर्ण सभा पर गोलियों की बरसात
यह बैसाखी के त्योहार का अवसर था. पंजाब में इस मौके पर और भी धूम और उल्लास रहता है. इसी दिन गुरु गोविंद सिंह जी ने खालसा पंथ की स्थापना की थी. सभा में उपस्थित भीड़ नाराज थी लेकिन पूरी तौर पर अनुशासित और नियंत्रित थी. उस समय हंसराज सभा को संबोधित कर रहे थे. तब तक जनरल डायर की अगुवाई में बाग के इकलौते प्रवेश-निकास द्वार को सैनिकों ने घेर लिया. फिर गोलियों की निर्मम बरसात हुई थी. न गोलियों की गिनती थी और न मरने वालों की. जान बचाने की नाकाम कोशिश में तमाम लोग मैदान के एक किनारे स्थित कुएं में कूद गए थे. बहुतों की देह दीवार फांदने की कोशिश में पुलिस-सेना की गोलियों से छलनी होकर निस्तेज हो गई थी.
ऊधम ने ली प्रतिशोध की कसम
जालियांवाला बाग में हुए नरसंहार ने देश को झकझोर दिया था. इसने अंग्रेजों के विरुद्ध आजादी के संघर्ष को और तीव्र किया था. महात्मा गांधी के नेतृत्व में अहिंसक रास्ते से आजादी के संघर्ष से जुड़े बड़े नेता ही नहीं बल्कि निचले स्तर तक के कांग्रेस कार्यकर्ता इस कांड से बहुत दुखी और क्षुब्ध थे. क्रांतिकारी रास्ते से संघर्ष में जुटे नौजवानों में और भी अधिक गुस्सा था. इस सभा में शामिल लोगों को पानी पिलाने के लिए खालसा अनाथालय की ओर से वालंटियर्स तैनात किए गए थे. 20 साल के ऊधम सिंह इनमें शामिल थे.
डायर के हुक्म से निहत्थी और शांत भीड़ पर अकारण गोली वर्षा ने ऊधम सिंह को विचलित कर दिया था. उन्होंने शहीदों के लहू से तर मिट्टी को मुट्ठी में लेकर प्रतिशोध की कसम खाई थी. अगले इक्कीस साल जागते-सोते और अंग्रेजों से जूझते वे इस कसम को कभी नहीं भूले. उसे पूरा करके ही वे फांसी के फंदे पर झूले. भगत सिंह तब सिर्फ 12 साल के थे. जालियांवाला कांड की अगली सुबह भगत सिंह घर से स्कूल के लिए निकले लेकिन पहुंचे जालियांवाला बाग. वहां शहीदों के लहू से तर मिट्टी उन्होंने एक बोतल में एकत्रित की और फिर घर के पूजा स्थल में उसे श्रद्धाभाव से संजोया.
गवर्नर डायर को ऊधम ने गोलियों से भूना
ऊधम सिंह के लाहौर जेल में रहने के दौरान ही इस नरसंहार के मुख्य खलनायक ब्रिगेडियर जनरल रेनाल्ड एडवर्ड हैरी डायर की मौत हो चुकी थी. उसके कुकृत्यों को पंजाब के तत्कालीन लेफ्टिनेंट गवर्नर माइकेल फ्रैंसिस ओ डायर ने हर स्तर पर सही करार दिया था. गवर्नर ने हैरी डायर और फोर्स को बेकसूर बताते हुए सारी जिम्मेदारी सभा में मौजूद भीड़ पर डाली थी. 13 मार्च 1940 की शाम लन्दन के कॉक्सटन हाल में रॉयल सेंट्रल एशियन सोसाइटी और ईस्ट इंडिया एसोसिएशन की बैठक जारी थी. मंच पर माइकेल फ्रैंसिस ओ डायर भी मौजूद थे.
नीले सूट में ऊधम सिंह कुछ पहले से ही वहां पहुंच गए थे. दर्शकों के बीच अपनी सीट से वह एकटक डायर पर नजर गड़ाए थे. 21 साल से वे जिस मौके की तलाश में थे, वह पास था. ऊधम ने भाषण के लिए खड़े डायर को निशाने पर लिया. तीन-चार गोलियां चलाईं. डायर ने मौके पर ही दम तोड़ दिया. ऊधम सिंह ने भागने की कोई कोशिश नही. बलिदान के जज़्बे के साथ ऊधम ने खुद को पुलिस को सौंप दिया था.
ऊधम सिंह ने अदालत में कहा था कि मैं मरने की फिक्र नही करता. मरने से नहीं डरता. मरने के लिए बूढ़े होने के इंतजार का क्या मतलब? जवान रहते मरना अच्छा है, जैसा कि मैं करने जा रहा हूं. मै अपने देश के लिए बलिदान दे रहा हूं. ब्रिटिश साम्राज्यशाही की गुलामी में अपने देश के लोगों को मैंने भूख से मरते देखा है. मैंने इसके विरोध में गोली चलाई है. अपने देश की ओर से विरोध करने के लिए गोली मारी है. मुझे सजा की फिक्र नही. दस साल, बीस साल,पचास साल या फिर फांसी. मैंने अपने देश के लिए फ़र्ज निभाया.
चारों ओर बिखरी लाशें और जानवरों की रोती आवाजें
पंजाब सरकार ने आजादी के संघर्ष के इस महान स्मारक को करीने से संजोया-संवारा है. बाग की वे तीन पुरानी दीवारें संरक्षित हैं, जिन पर दर्जनों गोलियों के निशान अभी भी मौजूद हैं. वह चौड़ा-गहरा कुंआ भी जिसमें कूदकर जान बचाने की कोशिश में सैकड़ों की जानें गईं. इस कांड की पृष्ठभूमि और पूरे घटनाक्रम को शब्दों, चित्रों और अखबारी कतरनों के जरिए बखूबी परिचित कराया गया है.
कुछ चश्मदीदों के विचलित करने वाले बयान भी प्रदर्शित हैं. इसमें उस अभागी रतन कुमारी का दिल दहलाने वाला बयान भी है, जो निर्मम कांड के बाद देर शाम अपने पति की तलाश में वहां पहुंची थी. चारों ओर लाशें बिखरी हुई थीं. किसी की छाती तो किसी की पीठ छलनी थी. उस खौफनाक सन्नाटे बीच रतन कुमारी को सिर्फ जानवरों की रोती आवाजें सुनाई पड़ी थीं.