ऐंठी मूंछें, ऊंचा कद, झक साफ कपड़े, हंसता तो खुलकर, दहाड़ता तो बड़े-बड़े कांप जाते, चलने में ठसक नहीं अकड़ होती, निगाहें ऐसी कि घूर दे तो सामने वाला पसीना-पसीना हो जाए. दबंगई करने का शौक, मनमानी करने की जिद जिसने उसे माफिया बना दिया. एक खानदानी घर के लड़के मुख्तार को संगत, परिवेश और बेरोजगारों की फौज ने बड़ा बनाया. जब तक सरकारें साथ देती रहीं तब तक इकबाल बुलंद होता रहा लेकिन जब सरकार ने नजरें फेर लीं तो दुर्दिन शुरू हो गए. मुलायम-माया और अखिलेश के जमाने में साम्राज्य कायम कर चुके मुख्तार का पानी योगी सरकार में उतरने लगा.
कभी गाजीपुर की जेल में ताजी मछली खाने के लिए तालाब खुदवा चुके माफिया मुख्तार की बांदा जेल में तबीयत बिगड़ गई. इसके बाद उसे बांदा के रानी दुर्गावती मेडिकल कॉलेज ले जाया गया, जहां उसकी हार्ट अटैक से मौत हो गई. परिवार ने पहले ही आशंका जता दी थी कि जेल में उसे जहर दिया जा रहा है. तमाम तरह के आरोप प्रत्यारोप लग रहे हैं लेकिन अब सब कुछ जांच के दायरे में होगा.
गाजीपुर जिले का एक कस्बा है युसुफपुर मुहम्मदाबाद जहां 1963 में मुख्तार अंसारी का जन्म हुआ था. परिवार नामी था, आजादी की लड़ाई में अपना लंबा योगदान दे चुका था. इसलिए लोग इज्जत बख्शते थे. घर के लोग पढ़े-लिखे और सलीकेदार थे तो छोटी-मोटी समस्याओं के समाधान के लिए लोग मुख्तार के घर पहुंचते थे, जिसे फाटक या बड़का फाटक कहा जाता है. मुख्तार अपने घर में सबसे लंबा था. वॉलीबॉल, क्रिकेट, फुटबॉल सब खेलता लेकिन खेलने से ज्यादा जीतने पर नजर रहती. जैसे-जैसे मुख्तार की लंबाई बढ़ती गई, वैसे-वैसे उसमें दबंगपन आता गया. इलाके के लोग बताते हैं कि अगर यह आदमी पढ़ने में इंट्रेस्ट लिया होता तो बड़ा अफसर बनता. लेकिन उसकी मंजिल कहीं और थी. इरादे कुछ और थे. उसे शॉर्ट कट चाहिए थे, सलामी चाहिए थी लेकिन दबंगई से. उसे यकीन हो चला था कि बल से सब कुछ हासिल किया जा सकता है. वह डाकुओं की तरह लूटने और राजाओं की तरह लुटाने में यकीन रखता था.
80 के दशक में जब मुख्तार जवानी की दहलीज पर कदम रख रहा था तब यूपी से लेकर बिहार तक की राजनीति में अपराध हावी हो रहा था. नेताओं को वोट चाहिए थे और अपराधियों को ठेके. नेता ठेका दिलाते और अपराधी जिंदाबाद के नारे लगाते. गाजीपुर, आजमगढ़ और गोरखपुर तब सटे जिले हुआ करते थे. युसुफपुर मुहम्मदाबाद से 80 किमी दूर है चिल्लूपार, जहां के हरिशंकर तिवारी हुए. मुख्तार जब जवान हो रहा था तब तिवारी बड़े हो गए थे. पहले उन्होंने गोरखपुर में ठाकुरों का वर्चस्व तोड़ा फिर मठ से लोहा ले लिया. मठ को नीचा दिखाने को आतुर अधिकारियों ने हरिशंकर तिवारी का साथ दिया और हरिशंकर का हाता मठ के समानांतर सरकार बन गया. ठेके-पट्टे तिवारी को मिलने लगे. तिवारी ने दूसरे माफिया वीरेंद्र प्रताप शाही को डाउन कर दिया. हरिशंकर तिवारी 1985 में विधायक बन गए. माना जाता है कि अपराध का राजनीतिकरण यहीं से हुआ.
मुख्तार को दिखने लगी मंजिल
हरिशंकर तिवारी के गैंग में गाजीपुर के दो भाई काम करते थे साधू और मकनू सिंह. दोनों जब गाजीपुर आते तो लंबी-लंबी फेंकते. मुख्तार से इनकी दोस्ती हो गई. हरिशंकर तिवारी के विधायक बनने के बाद मुख्तार को अपनी मंजिल दिखने लगी, क्योंकि कमोबेश पूर्वांचल के हालात एक जैसे ही थे. उस दौरान यूपी-बिहार से कई नेता रेल मंत्री रहे. गोरखपुर से लेकर पटना, हाजीपुर, कोलकाता तक रेलवे के ठेके जारी होते. इन्हें वही हासिल कर पाता जिसके पास बाहुबल होता. कमीशनखोरी का खेल बंदूकों का बल और लड़ने वालों का खून मांगता. ठेके हथियाने के लिए आए दिन गोलियां चलतीं. गुंडई ऐसी कि पुलिस अपने को लाचार समझती. जो रेलवे के ठेके नहीं ले पाते वो टैक्सी स्टैंड और बस स्टैंड के ठेके लेते. यह ऐसा इलाका था जहां पढ़ाई का माहौल था लेकिन नौकरियों के लाले थे. बेरोजगार घूम रहा युवा कब माफिया के चंगुल में फंस जाता था उसे पता ही नहीं चलता था. जमीन के झगड़े आम थे. खाने को न हो लेकिन अधिकांश घरों में कट्टा या लाइसेंसी बंदूक जरूर मिल जाती. लोग हवाई चप्पल पहने, बंदूक टांगे, साइकिल से चलते देखे जाते. चाय पान की दुकानों पर अपराध के चर्चे आम थे.
मुख्तार ठेके में उतरने की सोचने लगा
कहा जाता है कि साधू और मकनू की संगत ने मुख्तार को लाइन दे दी, वह ठेके में उतरने की सोचने लगा. लेकिन परिवार इसके लिए राजी नहीं था और न पारिवारिक पृष्ठभूमि ही ऐसी थी कि इस काम की अनुमति मिले. न पैसे इतने थे और न ही बाहुबल. मुख्तार ने दूसरा रास्ता अख्तियार किया. 80 और 90 के दशक में गाजीपुर की तब एक और विशेषता मानी जाती थी. बनारस से गाजीपुर होते हुए बलिया मऊ गोरखपुर तो बस चल सकती थी लेकिन गाजीपुर की इंटर्नल सड़कों पर बस चलाने की जुर्रत न सरकार कर सकती थी न प्रशासन. अगर प्रशासन ने कोशिश भी की तो दबंगों ने उन्हें अपनी भाषा में समझा दिया. सरकारी बसें तोड़ दी गईं. ड्राइवर और कंडक्टर पीट दिए गए. दूसरी ओर प्राइवेट बसें इतनी समय से चलती थीं कि लोग उससे घड़ी मिला लेने की बात करते थे.
पहली बार हत्या में आया नाम
मुख्तार का हत्या के मामले में पहली बार नाम तब आया जब मुहम्मदाबाद से गाजीपुर, बलिया और बनारस के लिए प्राइवेट बसें चलती थीं. सचिदानंद राय इस धंधे के माहिर खिलाड़ी माने जाते थे. कहा जाता है कि मुख्तार के कुछ लोग भी इस धंधे में थे. किसकी बस कब निकलेगी इसको लेकर विवाद हो गया. मुख्तार के जवानी के दिन थे, उसने सचिदानंद की गैरमौजूदगी में उनके लोगों को खदेड़ दिया. सचिदानंद को जब ये बात पता चली तो वह झगड़ा करने मुख्तार के घर ‘फाटक’ पहुंच गए. कहा जाता है कि मुख्तार को यह बात बहुत बुरी लगी, इसके कुछ दिन बाद सचिदानंद की हत्या हो गई. इसमें नाम मुख्तार का आया लेकिन कुछ साबित नहीं हो पाया. इससे पहले एक शूटर माला गुरु की हत्या में भी मुख्तार का नाम आया था लेकिन सचिदानंद का मामला आते ही माला का मामला छोटा पड़ गया. जैसे-जैसे विवादों से नाता जुड़ता गया मुख्तार बड़ा होता गया.
मुख्तार और ब्रजेश सिंह की अदावत
कहा जाता है कि मुख्तार और ब्रजेश सिंह की आपस में कोई लड़ाई नहीं थी. दोनों के रास्ते अलग-अलग थे, लेकिन हालात ऐसे बने कि दोनों एक-दूसरे की जान के दुश्मन बन गए. तब सोशल मीडिया का जमाना नहीं था, तो मुख्तार मऊ की भरी सभाओं में कहता कि कौन कहता है कि मैं केवल मुसलमानों का हूं. हिंदू भी मेरे अपने हैं. लेकिन आप लोग जानते हैं कि एक ही आदमी से मेरी अदावत है. अब वो भारी पड़ेगा तो मुझे मार देगा या तो मैं उसे मार दूंगा. इशारा ब्रजेश सिंह की तरफ होता. इलाके के लोग बताते हैं कि मुख्तार के साथी साधू सिंह के गैंग के पांचू सिंह ने एक जमीन विवाद में ब्रजेश सिंह के पिता की हत्या कर दी.
साधू सिंह की संगत की वजह से ब्रजेश मुख्तार को दुश्मन मानने लगे. उधर मुख्तार का दबदबा बढ़ता जा रहा था. गरीब मुसलमानों के लड़के भईया के लिए जाने देने को तैयार होने लगे थे. इसी दौरान आजमगढ़ के तरयां में एक ही दिन 7 लोगों की हत्या कर दी गई. बदले की आग में जल रहे ब्रजेश सिंह का नाम आया. यह ठाकुरों की आपस की लड़ाई थी लेकिन इसमें ये तय हो गया कि पूर्वांचल में दो ही गुट होंगे या तो ब्रजेश सिंह के साथ हो जाओ या मुख्तार के साथ. गैंगवार तय था. कहा जाता है कि बनारस से इलाहाबाद तक ब्रजेश भारी पड़ते और गाजीपुर-मऊ की तरफ मुख्तार. साधू सिंह को पुलिस कस्टडी में मार दिया गया. उसी दिन साधू सिंह के गांव मुदियार में हमला हुआ और साधू सिंह की मां, भाई समेत 8 लोगों को मार दिया गया.
मुख्तार की उड़ान
ठेका पट्टा तो बहाना था, मुख्तार को तो राजनीति में हाथ आजमाना था. उसने जनता की कमजोर नस पकड़ी, गाजीपुर में बुनकरों की अच्छी खासी आबादी है और तकरीबन हर घर में हथकरघे का काम होता था. लेकिन बिजली की समस्या विकराल थी. मुख्तार को इसमें पोटेंशियल दिखा. उसने इसको इश्यू बना दिया. अधिकारियों पर बिजली के लिए दबाव बनाता और उनसे कहलवाता कि मुख्तार की वजह से बिजली दी जा रही है. ऐसे में जनमत उसके पक्ष में होने लगा. फरियाद लेकर फाटक पहुंचने वालों की संख्या बढ़ने लगी. यहां से मुख्तार को आस दिखने लगी. वह गाजीपुर की किसी सीट से ही चुनाव लड़ना चाहता था लेकिन बात नहीं बनी. फिर उसने बीएसपी की सदस्यता ले ली. मायावती ने उसे मऊ से लड़ने का आदेश दिया. मुस्लिम बहुल सीट मुख्तार के लिए वरदान साबित हुई. 1996 में पहली बार वह मऊ से विधायक चुना गया और 2017 तक लगातार यहां से विधायक रहा.
मुख्तार का रौला
विधायक चुने जाने के बाद तो मुख्तार की हैसियत में चार चांद लग गए. वह लखनऊ से चलता तो पहले ही अधिकारियों से करार कर लेता कि जब तक वह इलाके में रहेगा तब तक 24 घंटे लाइट रहनी चाहिए. अगर संयोग से भी लाइट 24 घंटे रहती तो लोग अनुमान लगाते कि विधायक जी होंगे. फिर तो फाटक पर बड़े-बड़े विवाद निपटाए जाने लगे. किसी की फंसी जमीन हो, अस्पताल पर डॉक्टर न आ रहा हो, रेबीज का इंजेक्शन न मिल रहा हो. कोई सड़क बनवानी हो. दहेज की वजह से किसी की शादी कट रही है. कोई लड़का किसी लड़की को छोड़ने पर आमादा हो, ऐसे सारे फैसले फाटक पर लिए जाने लगे. पहले प्यार से समझाया जाता फिर इशारे में यह भी बता दिया जाता कि अगर नहीं माने तो जान लो क्या होगा.
एसयूवी का नंबर 786, योग्य ड्राइवर
मुख्तार को एसयूवी का शौक था लेकिन उसकी गाड़ियों का नंबर 786 ही होता था, सीरीज कोई भी हो. वह किस गाड़ी में बैठा है किसी को पता नहीं चलता था. ड्राइवर ऐसे रखे जाते थे जो दूर से ही दुश्मन को पहचान ले. गाजीपुर बनारस के पत्रकार बताते हैं कि श्रीप्रकाश शुक्ला सभी बड़े माफिया को निपटाना चाहता था. एक बार लखनऊ में शुक्ला को अंसारी के ड्राइवर ने देख लिया. फिर तो गाड़ियां वहां से निकलीं और सीधा फाटक पर ही रुकीं.
उसरी चट्टी हत्याकांड जिसमें होनी थी मुख्तार की गवाही
15 जुलाई 2001 को मुख्तार का काफिला मऊ से मुहम्मदाबाद के लिए निकला. ट्रक पर सवार हमलावरों ने मुख्तार को निशाना बनाना चाहा लेकिन सफल नहीं हुए. मुख्तार का सरकारी गनर मारा गया. मुख्तार की गाड़ी से गोली चली और हमलावर मनोज राय ढेर हो गया. मुख्तार के दुश्मन ब्रजेश सिंह और त्रिभुवन सिंह इसमें नामजद हुए. इसी मामले में गवाही होनी थी, मुख्तार के परिवार का कहना है कि अगर गवाही हो जाती तो ब्रजेश सिंह को सजा हो जाती इसलिए मुख्तार की जान लेने की साजिश रची गई.
कृष्णानंद हत्याकांड
मुख्तार पर हमले के बाद गैंगवार शुरू हो गई, जिसमें कई लोग मारे गए. ब्रजेश सिंह को एक चेहरे की जरूरत थी क्योंकि वह भूमिगत थे. ऐसे में कृष्णानंद राय ने वह कमी पूरी कर दी. ब्रजेश गुट अंसारी परिवार को हराना चाहता था लेकिन मऊ में यह मुश्किल था लेकिन गाजीपुर में आसान क्योंकि यहां मुस्लिम आबादी 10 फीसदी ही है. 2002 में कृष्णानंद मुहम्दाबाद से अफजाल के खिलाफ खड़े हो गए और जीत भी गए. कहा जाता है कि उस दिन से कृष्णानंद राय मुख्तार की आंख की किरकिरी हो गए. कृष्णानंद जानते थे कि उनकी जान को खतरा है इसलिए बुलेटप्रूफ जैकेट पहना करते.
इसी को क्रैक करने के लिए मुख्तार ने सेना के भगोड़े से एएमजी खरीदी थी. उस पर पोटा लगाने वाले एसटीएफ में डिप्टी एसपी शैलेंद्र सिंह ने दावा किया कि उन्होंने मुख्तार को यह कहते हुए सुना था कि कृष्णानंद राय की बुलेटप्रूफ गाड़ी सामान्य राइफल से नहीं भेदी जा सकती इसलिए एलएमजी का इंतजाम करना है. इसके लिए 1 करोड़ में सौदा तय हो रहा था. शैलेंद्र सिंह ने केस तो दर्ज कर एलएमजी भी बरामद कर ली लेकिन मुख्तार को गिरफ्तार करने की हसरत अधूरी रह गई. उन पर इतने दबाव पड़े कि उन्हें इस्तीफा देना पड़ा. उन पर मुकदमे भी लाद दिए गए. योगी सरकार ने उन पर लगे मुकदमे वापस लिए हैं लेकिन नौकरी की उम्र पार हो गई.
2005 में मुख्तार पर लगे मऊ में दंगा कराने के आरोप
2005 में मुख्तार पर मऊ में दंगा कराने के आरोप लगे थे. भरत मिलाप पर हुए पथराव के बाद शुरू हुई हिंसा में कई लोग मारे गए थे. कुछ फुटेज में दावा किया गया था मुख्तार खुली जिप्सी में घूमकर एक पक्ष को दूसरे के खिलाफ भड़का रहा है. राज्यपाल राजेश्वर राव के मऊ दौरे के बाद मुख्तार पर शिकंजा कसा गया. मुख्तार ने 25 अक्टूबर 2005 को समर्पण कर दिया और गाजीपुर जेल चला गया. मुख्तार के जेल जाने के बाद कृष्णानंद और लापरवाह हो गए. गाहे बगाहे वह बिना बुलेटप्रूफ गाड़ी के भी निकल जाते. 29 नवंबर 2005 को उन्हें करीमुद्दीनपुर इलाके के सेनाड़ी गांव में एक क्रिकेट मैच का उद्घाटन करने जाना था.
हल्की हल्की बारिश हो रही थी वह बुलेटप्रूफ गाड़ी छोड़कर सामान्य गाड़ी में चले गए. इसकी मुखबिरी हो गई. शाम 4 बजे के आसपास जब वह अपने गांव गोडउर लौट रहे तो बसनियां चट्टी पर उन्हें घेर लिया गया और एके-47 से अंधाधुंध फायरिंग की गई, तकरीबन 400 गोलियां चलाई गईं. कृष्णानंद समेत 7 लोग मारे गए. कृष्णानंद राय के शरीर से 67 गोलियां निकाली गईं. यह सामान्य हत्या नहीं थी. यह बताने के लिए था कि आपके इलाके में आपके लोगों के बीच घुसकर मारा है. कृष्णानंद राय की चुटिया उस समय फेमस हो चुकी थी. कहा जाता है कि हमलावरों में से एक हनुमान पांडेय ने उनकी चुटिया काट ली थी. बाद में उसी दौरान का एक ऑडियो सामने आया जिसमें मुख्तार जेल से ही एक माफिया से बात कर रहा है और बता रहा है चुटिया काट लिहिन.
कृष्णानंद राय की हत्या के बाद पूर्वांचल जल उठा था. बसें फूंकी गई थीं, सरकारी संपत्तियों को नुकसान पहुंचाया गया. बीजेपी के कद्दावर नेता राजनाथ सिंह ने मुलायम सरकार के खिलाफ मोर्चा खोल दिया. हाई कोर्ट के आदेश पर जांच सीबीआई को सौंपी गई. राय की पत्नी अलका राय की याचिका पर केस दिल्ली ट्रांसफर किया गया लेकिन सबूतों के अभाव में 3 जुलाई 2019 को दिल्ली की सीबीआई कोर्ट ने मुख्तार, अफजाल समेत सभी आरोपियों को बरी कर दिया. लेकिन बाद में गुंडा एक्ट में मुख्तार को इस मामले में दोषी ठहराया गया.
कभी गाजीपुर जेल में खुदवा दिया था तालाब
यूपी के डीजीपी रहे बृजलाल ने मीडिया से बात करते हुए बताया था कि मुख्तार ताजी मछली खा सके इसलिए जेल परिसर में तालाब खुदवा दिया गया. एक डिप्टी एसपी अखबार लेकर जाते थे. एक दरोगा मुख्तार के प्रेस किए कपड़े पहुंचाने का काम करते थे. निशानेबाजी का शौक इतना कि जेल में गुलेल से निशानेबाजी की प्रैक्टिस करता था. गाजीपुर के वरिष्ठ पत्रकार राजकमल कहते हैं कि मुख्तार और ब्रजेश सिंह के लोगों में एक खास अंतर यह भी है कि इस गैंग के लोग निशानेबाजी में पारंगत हैं. पहले कई ऐसी हत्याएं ऐसी हुईं जिसमें केवल एक गोली का इस्तेमाल हुआ और टारगेट खत्म हो गया. 2009 तक राजनीतिक हालात बदले सूबे की कमान मायावती के हाथ में थी. गाजीपुर जेल में एसटीएफ ने छापा मारा तो मुख्तार की सेल में फ्रिज, कूलर, गैस सिलिंडर समेत कई सामान मिले. इसके बाद मुख्तार को मथुरा जेल भेज दिया गया. इसके बाद परिस्थितियां बदलीं तो उन्हें लखनऊ- उन्नाव होते हुए 2018 में बांदा जेल भेज दिया गया.
सुभाष ठाकुर से मिला नया दर्शन
एक बिजनसमैन से रंगदारी मांगने के आरोप में मुख्तार की गिरफ्तारी दिल्ली में हुई. यहां उसको डाल सुभाष ठाकुर मिला जिसने बताया कि सत्ता की हनक कितनी जरूरी है नहीं तो एक मामूली हवलदार भी फाटक पर नोटिस चस्पा कर देगा. जेल में जरायम के लोग मिलते हैं जो बाहर काम आते हैं. इसलिए मुख्तार ने जेल से कभी गुरेज नहीं किया. मुख्तार के जेल पहुंचने से पहले उसके कारिंदे पहले जाकर आसपास के इलाकों में डेरा जमा लेते. मुख्तार को मारने की कई बार साजिश हुई लेकिन सफलता नहीं मिली. बिहार के लंबू शर्मा को पकड़ा गया था जिसने बताया था कि उसने मुख्तार को मारने के लिए 6 करोड़ की सुपारी ली, 50 लाख एडवांस ले लिया लेकिन किसी और मामले में पकड़ लिया गया.
बांदा से रोपड़ फिर बांदा बना अंतिम ठिकाना
2017 में सपा की सरकार जाने और योगी की सरकार आने के बाद फिजा बदलने लगी थी. कृष्णानंद की हत्या में शामिल मुन्ना बजरंगी की 2018 में बागपत जेल में गोली मारकर हत्या कर दी गई. मुख्तार को तबसे यूपी की जेल में खतरा महसूस होने लगा. कहा जाता है कि उसने पंजाब के बिजनेसमैन से रंगदारी की शिकायत दर्ज करवाई और गिरफ्तार होकर पंजाब की रोपड़ जेल चला गया. इधर कई मामलों में यूपी की अदालतों में मुख्तार को पेश होने के लिए कहा गया लेकिन वह स्वास्थ्य का बहाना बनाकर कन्नी काटता रहा. आखिर सुप्रीम कोर्ट से राहत नहीं मिलने पर उसे बांदा जेल लाया गया. जहां उसकी तबीयत बिगड़ी और हार्ट अटैक से 28 मार्च 2024 को उसका निधन हो गया.
अधूरी हसरत लिए दुनिया से विदा हो गया मुख्तार
मुख्तार विधायक तो कई बार बना लेकिन सांसद बनने की हसरत अधूरी रह गई. 2009 में बीजेपी बनारस की सीट हर हाल में जीतना चाहती थी. मुरली मनोहर जोशी को उम्मीदवार बनाया गया, उधर बीजेपी से खार खाई मायावती ने मुख्तार को टिकट दे दिया. मुकाबला जोरदार हो गया, ऐसा लगा कि जोशी चुनाव हार जाएंगे. कहा जाता है कि दोपहर में हल्ला मचा कि मुख्तार जीत रहा है फिर हिंदू घरों से निकले और जोशी मात्र 17,000 वोटों से जीत पाए. यह तब था जब मुख्तार आगरा सेंट्रल जेल में बंद था.
हालात बदले और बीएसपी से मुख्तार को निकाल दिया गया. इसके बाद अफजाल, मुख्तार और शिगबतुल्ला तीनों भाइयों ने मिलकर कौमी एकता दल नाम की पार्टी बनाई. 2014 में मुख्तार घोषी संसदीय सीट से उम्मीदवार बना लेकिन सफलता नहीं मिली. 2017 में कौमी एकता दल का बीएसपी में विलय हो गया और मुख्तार को मऊ सदर से टिकट मिल गया. मुख्तार फिर विधायक बन गया. 2022 के चुनाव आने तक मुख्तार पस्त हो चुका था, जेल में था, संपत्तियां या तो जब्त हो रही थीं या बुलडोजर चलाया जा रहा था. ऐसे में अब्बास मऊ से उम्मीदवार बने और विधायक चुने गए.
मुख्तार की आपराधिक कुंडली
मुख्तार पर अलग-अलग राज्यों में 65 मुकदमे दर्ज थे. कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष अजय राय के भाई अवधेश राय मर्डर में उसे आजीवन कारावास की सजा हो चुकी थी. कृष्णानंद राय मर्डर में भी उसे सजा हो चुकी थी. कई मामले विचाराधीन थे, सरकार ने चारों तरफ से इतना घेर दिया था कि अब गवाहियां होने लगी थीं और अगर मुख्तार जिंदा भी होता तो उसकी जिंदगी जेल में ही कटनी थी.
मुख्तार का परिवार
मुख्तार अंसारी के परिवार को जो सामाजिक हैसियत हासिल हुई वह बहुत कम लोगों को मिलती है. अंसारी के दादा मुख्तार अहमद अंसारी को गांधी जी के खास आदमियों में गिना जाता था. वह 1926-27 में कांग्रेस के अध्यक्ष रहे. मुख्तार के नाना उस्मान अंसारी ब्रिगेडियर थे, 47 लड़ाई में वह शहीद हो गए, उन्हें मरणोपरांत महावीर चक्र से नवाजा गया. भारत के उप राष्ट्रपति हामिद अंसारी रिश्ते में मुख्तार के चाचा लगते हैं. मुख्तार के भाई अफजाल 1986 से लेकर 96 तक लगातार विधायक रहे. उनके दूसरे भाई सिगबतुल्ला भी 2012 से 17 तक विधायक रहे. मुख्तार के दो बेटे हैं अब्बास और उमर. मुख्तार की तरह अब्बास को भी निशानेबाजी का शौक है. वह शॉटगन शूटिंग के चैंपियन रह चुके हैं. दूसरे भाई उमर ने विदेश में पढ़ाई की है.
2017 के चुनाव में उन्होंने मऊ में अपने पिता के लिए प्रचार की कमान संभाली थी. क्योंकि अब्बास घोसी विधानसभा सीट से चुनाव लड़ रहे थे हालांकि 7000 वोटों से हार गए. 2022 में अब्बास सुभासपा से मऊ के विधायक चुने गए. मुख्तार अंसारी की पत्नी अफशां अंसारी हैं जिन पर प्रशासन ने 50,000 का इनाम घोषित कर रखा है. अफजाल अंसारी ने 2019 में बीजेपी के दिग्गज नेता मनोज सिन्हा को गाजीपुर से हरा दिया था, इसके बाद मनोज सिन्हा को जम्मू-कश्मीर का उपराज्यपाल बनाया गया था. अफजाल को सपा ने इस बार भी टिकट दे दिया है.
मुख्तार को पसंद थी रॉबिनहुड की इमेज
मुख्तार की पहचान माफिया की थी लेकिन रॉबिनहुड की इमेज उसे पंसद थी. गरीबों-मजलूमों के साथ खड़ा होना उसे आता था. ब्रजेश सिंह जैसे लोगों से वह इसलिए बचता रहा कि उसके साथ चलने वाले लोग उसके लिए जान देने के लिए तैयार रहते थे. उसरी चट्टी में जब गोली चली तो एक लड़का मुख्तार के ऊपर लेट गया, ऐसी कई कहानियां हैं जो कही जाती हैं. लेकिन इतना तय है कि मुख्तार के मरने के बाद भटके युवाओं को शायद यह समझ में आए कि हर अपराधी का हिसाब जेल की सलाखों के पीछ ही होता है.