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आतंकियों को मदद देने वालों के लिए बनी धारा, NIA की मांग खारिज

जम्मू के एक स्पेशल जज ने राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) की ओर से दायर उस आवेदन को खारिज कर दिया है जिसमें पहलगाम हमले में शामिल आतंकवादियों को शरण देने के आरोप में दो आरोपियों का पॉलीग्राफ यानी नार्को टेस्ट कराने की इजाजत मांगी गई थी. इसे झूठ पकड़ने वाला टेस्ट भी कहा जाता है. एडिशनल सेशन जज संदीप गंडोत्रा ​​ने कहा कि नार्को एनालिसिस और पॉलीग्राफ टेस्ट जैसी वैज्ञानिक तकनीकों का अनैच्छिक प्रयोग संविधान के अनुच्छेद 20 (3) के तहत प्रदत्त ‘स्वयं के खिलाफ गवाही न देने के अधिकार’ का उल्लंघन होगा.

कोर्ट ने 29 अगस्त के फैसले में कहा, ‘इस अधिकार का मूल आधार यह है कि अदालत में सबूत के तौर पर जो बयान पेश किए जाएं, वे भरोसेमंद और स्वेच्छा से दिए गए हों. किसी भी बड़े सार्वजनिक हित का हवाला देकर ऐसे संवैधानिक अधिकारों जैसे कि स्वयं के खिलाफ गवाही न देने का अधिकार को कमजोर नहीं किया जा सकता.’

ऐजेंसी ने क्या लगाए हैं आरोप?

22 अप्रैल को पहलगाम के बैसरन में धार्मिक पहचान के आधार पर पर्यटकों पर आतंकवादियों ने हमला कर 26 लोगों की हत्या कर दी थी. इस हमले की जांच बाद में एनआईए ने अपने हाथ में ले ली थी. वहीं, एनआईए ने अपनी जांच के दौरान दो स्थानीय लोगों बशीर अहमद जोथाद और परवेज अहमद को गिरफ्तार किया था, जिनके ऊपर आरोप है कि उन्होंने हमले से पहले आतंकवादियों को खाना और अन्य रसद मदद पहुंचाई थी.

एनआईए कोर्ट में दायर आवेदन में एजेंसी ने कहा था कि आरोपियों के बयानों में कोई तालमेल नहीं है और इसलिए जांच से संबंधित सटीक और ठोस सुराग हासिल करने के लिए नार्को टेस्ट जरूरी है. आरोपियों को हिरासत में कोर्ट में पेश किया गया, लेकिन उन्होंने नार्को टेस्ट के लिए सहमति देने से इनकार कर दिया. उन्होंने आतंकवादियों को किसी भी तरह की मदद करने के आरोपों से भी इनकार किया और कहा कि वे टट्टू सवार हैं और गुज्जर-बकरवाल समुदाय से हैं.

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 20(3) क्या है?

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 20(3) एक मौलिक अधिकार है जो आत्म-दोषसिद्धि का निषेध करता है, अर्थात किसी भी अपराध के आरोपी व्यक्ति को स्वयं के विरुद्ध गवाही देने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता. यह अधिकार सुनिश्चित करता है कि किसी भी व्यक्ति को ऐसे सवालों के जवाब देने के लिए बाध्य नहीं किया जाएगा, जिनसे उसके खिलाफ आपराधिक मुकदमा चल सकता हो. आसान भाषा में समझा जाए तो अनुच्छेद 20(3) यह सुनिश्चित करता है कि किसी भी आरोपी को अपनी ही जुबान से खुद को अपराधी साबित करने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता.

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