3 साल में 2,863 मौतें, 25 साल में बारिश ने बदली चाल और पहाड़ों पर आई त्रासदी; उत्तराखंड में वैज्ञानिकों ने किया था अलर्ट

उत्तराखंड के उत्तरकाशी जिले के धराली गांव में इस समय मातमी सन्नाटा पसरा हुआ है. मंगलवार दोपहर को पहाड़ से आए मलबे और पानी ने गांव के घरों, दुकानों और बाजारों को तबाह कर दिया. इस हादसे में अब तक छह लोगों की मौत हो चुकी है, जबकि कई लोग अभी भी लापता हैं. राहत-बचाव दल ने अब तक 190 लोगों को सुरक्षित निकाला है. धराली त्रासदी कोई नई घटना नहीं है, पहाड़ों पर पहले भी बारिश और भूस्खलन ने कई बार कहर बरपाया है. भारत के पहाड़ी राज्यों में बादल फटने की घटनाएं अब लगभग हर साल दर्ज की जा रही हैं. वैज्ञानिकों का मानना है कि इन आपदाओं के पीछे पहाड़ों के प्राकृतिक स्वरूप के साथ छेड़छाड़, वनों की अंधाधुंध कटाई और असंतुलित विकास प्रमुख कारण हैं.
केदारनाथ में 2013 की विनाशकारी आपदा इसका सबसे भयावह उदाहरण है. मानसूनी बारिश में असामान्य वृद्धि और पश्चिमी विक्षोभ के संयुक्त प्रभाव से 24 घंटे में 300 मिलीमीटर से अधिक बारिश हुई. इसके चलते चोराबारी झील का मोराइन बांध टूट गया और भीषण बाढ़ में लगभग 5,700 लोगों की जान चली गई.
पिछले 12 वर्षों में उत्तराखंड कई बार ऐसी त्रासदियों से जूझ चुका है
- 2019 (आराकोट, उत्तरकाशी): बादल फटने और भूस्खलन में कम से कम 19 लोगों की मौत और 38 गांव प्रभावित.
- 2021 (चमोली): हैंगिंग ग्लेशियर टूटने से ऋषिगंगा और धौलीगंगा में अचानक बाढ़, दो जलविद्युत परियोजनाएं तबाह, 80 शव बरामद और 204 लोग लापता.
- 2022 (मालदेवता, देहरादून): बादल फटने से आई बाढ़ में 15 किलोमीटर का क्षेत्र प्रभावित.
- विशेषज्ञों का कहना है कि धराली की आपदा कई मायनों में 2021 की चमोली त्रासदी जैसी है. एचएनबी गढ़वाल विश्वविद्यालय के प्रो. वाईपी सुंदरियाल बताते हैं कि सिर्फ बारिश ही इसका कारण नहीं है; जमीनी अध्ययन और उच्च-रेजोल्यूशन उपग्रह डेटा से ही इसकी पूरी वजहें समझी जा सकती हैं.
जर्नल ऑफ जियोलॉजिकल सोसायटी ऑफ इंडिया में प्रकाशित हालिया अध्ययन बताता है कि उत्तराखंड में 2010 के बाद अत्यधिक वर्षा और सतही जल प्रवाह की घटनाओं में तेजी आई है.
- 1998-2009: तापमान बढ़ा लेकिन बारिश में कमी.
- 2010 के बाद: पैटर्न उलट गया, खासकर राज्य के मध्य और पश्चिमी हिस्सों में अत्यधिक वर्षा की घटनाएं बढ़ीं.
- 1970-2021 के आंकड़े: 2010 के बाद चरम बारिश की घटनाओं में स्पष्ट वृद्धि.
हिमालय क्षेत्र की खड़ी ढलानें इस क्षेत्र को आपदाओं के प्रति बेहद संवेदनशील बनाती हैं. मेन सेंट्रल थ्रस्ट जैसे टेक्टोनिक फॉल्ट क्षेत्र की अस्थिरता को बढ़ाते हैं. नम हवा ऊपर उठकर तीव्र वर्षा कराती है, जिससे भूस्खलन और आकस्मिक बाढ़ का खतरा बढ़ जाता है. नवंबर 2023 में नेचुरल हजार्ड्स जर्नल में प्रकाशित अध्ययन के अनुसार, 2020 से 2023 के बीच मानसून के महीनों में 183 आपदाएं दर्ज की गईं.
- 34.4% भूस्खलन
- 26.5% आकस्मिक बाढ़
- 14% बादल फटना
विज्ञान और पर्यावरण केंद्र के एटलस के अनुसार, जनवरी 2022 से मार्च 2025 के बीच 13 हिमालयी राज्यों में आपदाओं के दौरान 2,863 लोगों की जान गई. विशेषज्ञ मानते हैं कि प्राकृतिक जोखिम मानवीय हस्तक्षेप से और बढ़ रहे हैं. बेलगाम सड़क निर्माण, वनों की कटाई, नदी तटों और ढलानों पर निर्माण, तथा पर्यटन बुनियादी ढांचे का दबाव आपदाओं के जोखिम को कई गुना कर देता है. पर्यावरण कार्यकर्ता अनूप नौटियाल का कहना है कि केदारनाथ, चमोली, जोशीमठ और यमुनोत्री जैसी लगातार त्रासदियों के बावजूद राज्य के विकास मॉडल में कोई बदलाव नहीं हुआ है. जलवायु कार्यकर्ता हरजीत सिंह इस त्रासदी को ग्लोबल वार्मिंग से प्रेरित चरम मानसूनी घटनाओं और अवैज्ञानिक विकास का घातक मिश्रण बताते हैं.
उत्तराखंड में 1,260 से अधिक हिमनद झीलें हैं.
- 13 उच्च जोखिम वाली
- 5 अत्यंत खतरनाक श्रेणी की (एनडीएमए अनुसार)
तापमान बढ़ने से ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं, जिससे हिमनद झीलों में अचानक बाढ़ (GLOF) का खतरा बढ़ रहा है. वाडिया हिमालय भूविज्ञान संस्थान ने फ्रीज-थॉ साइकल को ग्लेशियर अस्थिरता का अहम कारण बताया है. एनडीएमए 2020 के दिशा-निर्देशों में उच्च जोखिम वाली झीलों का मानचित्रण, भूमि-उपयोग नियंत्रण और दूरस्थ निगरानी प्रणाली की सिफारिश करता है. बावजूद इसके, नीतियों और प्रवर्तन की गति खतरे के पैमाने के अनुरूप नहीं रही. दक्षिण एशिया नेटवर्क ऑन डैम्स, रिवर्स एंड पीपुल की 2013 की रिपोर्ट ने पहले ही चेताया था कि अंधाधुंध जलविद्युत परियोजनाएं और पहाड़ों की कटाई क्षेत्र को असुरक्षित बना रही हैं, लेकिन इन सिफारिशों पर ध्यान नहीं दिया गया.




