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पांच दशकों के जुड़ाव पर लग गया विराम, राहुल ने क्यों छोड़ी अमेठी?

अमेठी से गांधी परिवार के लगभग पांच दशकों के चुनावी जुड़ाव पर फिलहाल विराम लग गया है. बेशक किशोरी लाल शर्मा परिवार के प्रतिनिधि के नाते अरसे से अमेठी और रायबरेली से जुड़े रहे हैं लेकिन वहां के वोटरों के बीच उनकी पहचान गांधी परिवार के सहयोगी तक सीमित रही है. शर्मा की उम्मीदवारी से यकीनन स्मृति ईरानी को राहत मिलेगी. उनकी लड़ाई कुछ आसान हो गई है. राहुल गांधी ने 2019 में ही अमेठी के साथ वायनाड से पर्चा दाखिल करके विकल्प खोज लिया था.

मीडिया और पार्टी के स्थानीय कार्यकर्ताओं के शोर और अटकलबाजी को दरकिनार करते हुए उन्होंने चुनावी नजरिए से अमेठी की जमीनी सच्चाइयों को तरजीह दी. अपनी उम्मीदवारी के जरिए उन पर उत्तर प्रदेश में पार्टी का हौसला बढ़ाने की जिम्मेदारी है. इसके लिए उन्होंने अमेठी में स्मृति की कठिन चुनौती के मुकाबले रायबरेली में भाजपा के दिनेश प्रताप सिंह का सामना करने का फैसला किया.

राहुल ने अमेठी क्यों छोड़ी?

राहुल ने अमेठी छोड़ने का फैसला क्यों किया? एक बार फिर अमेठी के चुनावी मैदान में उतरने पर 2019 की हार के बाद क्षेत्र को भूल जाने के लिए उनकी घेराबंदी तय थी. इस मुद्दे पर सिर्फ प्रतिद्वंदी स्मृति ईरानी ही नहीं बल्कि तमाम मुखर वोटरों के सवाल उन्हें परेशान करते. इससे भी एक बड़ा सवाल दोनों स्थानों से जीतने की हालत में यह भरोसा दिलाने का होता कि वे वायनाड छोड़ेंगे और अमेठी में टिकेंगे ? हालांकि इस सवाल से उन्हें रायबरेली में भी रूबरू होना पड़ेगा लेकिन इस मुद्दे पर अमेठी में स्मृति ईरानी के हमले कहीं अधिक पैने और तेज होते.

अमेठी गांधी परिवार के मोहपाश से हो चुकी दूर

अमेठी से राहुल की उम्मीदवारी के सवाल पर सबसे ज्यादा उत्सुकता मीडिया में थी. राहुल की उम्मीदवारी की मांग को लेकर धरने पर बैठे पार्टी के डेढ़ – दो दर्जन नेताओं को ” अमेठी की जनता मांगे राहुल गांधी ” के तौर पर काफी बढ़ा – चढ़ा कर पेश किया गया. असलियत में अमेठी के कस्बे – गांव आम दिनों की तरह ही चुनावी माहौल में भी सुस्त और सड़कें सूनी हैं.

समर्थक भले न मानें लेकिन सच यही है कि अमेठी, गांधी परिवार के मोहपाश से काफी कुछ उबर चुकी है. उसे सिर्फ पहचान दिलाने वाले ही नहीं बल्कि काम कराने और उसकी जरूरतों के लिए लड़ने वाले प्रतिनिधि की तलाश रहती है. राहुल गांधी इस कसौटी पर खरे नहीं उतर सके. 2019 में अमेठी ने उन्हें ठुकरा दिया. हार के बाद राहुल ने अमेठी से दूरी बनाई तो वोटरों ने बाद के विधानसभा सहित हर अगले चुनाव में कांग्रेस को भुला दिया.

रायबरेली में राहुल की मौजूदगी पार्टी के लिए कितनी मददगार

अमेठी और रायबरेली से उम्मीदवारों के नाम की घोषणा के पहले राहुल और प्रियंका की उम्मीदवारी के लिए सबसे ज्यादा जोर इस आधार पर था कि इससे उत्तर प्रदेश में पार्टी की ताकत बढ़ेगी और अन्य उम्मीदवारों का हौसला बढ़ेगा. प्रियंका गांधी वाड्रा तो चुनाव लड़ने को तैयार नहीं हुईं. राहुल रायबरेली से मैदान में हैं. उनकी वहां मौजूदगी क्या प्रदेश के अन्य स्थानों पर पार्टी के लिए मददगार होगी ? असलियत में इसकी सबसे बड़ी परीक्षा बाजू की अमेठी सीट पर होगी जहां का उन्होंने 2004 से 2014 तक तीन बार लगातार लोकसभा में प्रतिनिधित्व किया.

उससे पहले एक बार वहां से सोनिया गांधी और उपचुनाव सहित चार चुनाव राजीव गांधी और एक बार संजय गांधी जीते. अमेठी की लोकसभा सीट लम्बे समय तक गांधी परिवार का पर्याय रही है. बेशक इस बार राहुल गांधी या परिवार का कोई सदस्य वहां से उम्मीदवार नहीं है लेकिन रायबरेली में राहुल की मौजूदगी की गूंज अमेठी में बनी रहेगी.

आखिरी वक्त तक सस्पेंस का नुकसान

अमेठी से पार्टी उम्मीदवार के नाम को लेकर आखिरी वक्त तक सस्पेंस कायम कर कांग्रेस ने फायदे की तुलना में अपना नुकसान ज्यादा किया. अमेठी से राहुल या प्रियंका के नामों का टीवी चैनलों और सोशल मीडिया पर लगातार शोर चला. जाहिर है कि अब अमेठी से दोनों में से किसी के उम्मीदवार न होने के कारण स्मृति खेमे को उन्हें घेरने का मौका मिला है कि हार के डर से राहुल अमेठी से लड़ने की हिम्मत नहीं जुटा सके. अमेठी संसदीय सीट का एक विधानसभा क्षेत्र सलोन ,रायबरेली जिले का हिस्सा है.

स्वाभाविक तौर पर दोनों लोकसभा सीटों के हालात एक – दूसरे पर असर छोड़ते हैं. स्मृति ईरानी इन दोनों ही सीटों पर लगातार सक्रिय रही हैं. राहुल के पास कम वक्त है. उन्हें रायबरेली के साथ ही उत्तर प्रदेश सहित देश के अन्य हिस्सों में भी पार्टी के लिए प्रचार करना है. भाजपा की कोशिश रहेगी कि वो अमेठी – रायबरेली के मतदान की तारीख तक राहुल को इन इलाकों में ज्यादा से ज्यादा वक्त देने को मजबूर करे.

हार के बाद भी संजय ने अमेठी नहीं छोड़ी

राहुल गांधी 2019 के बाद से अमेठी से दूरी बनाए हुए हैं. 2024 में वहां से गांधी परिवार का कोई सदस्य उम्मीदवार नहीं है. हालांकि अमेठी को यह परिवार अपना घर – परिवार बताता रहा है. तब जब गांधी परिवार उस घर – परिवार से दूर हो रहा है, उस वक्त इन रिश्तों की शुरुआत को याद किया जा सकता है. रायबरेली से फिरोज गांधी के दौर से गांधी परिवार का जुड़ाव रहा हैं. इमरजेंसी के समय इंदिरा गांधी रायबरेली से सांसद थीं. छोटे पुत्र संजय गांधी की संसदीय पारी की शुरुआत के लिए रायबरेली से सटी अमेठी सीट को काफी सुरक्षित समझा गया.

1976 में संजय गांधी ने खेरौना (अमेठी) में युवक कांग्रेस का एक माह का श्रमदान शिविर लगाया. अमेठी की मिट्टी से गांधी परिवार का जुड़ाव इस शिविर के जरिए हुआ. हालांकि 1977 के चुनाव में अमेठी ने संजय गांधी को निराश किया. फिर राजीव गांधी, सोनिया गांधी और राहुल गांधी यहां का प्रतिनिधित्व करते रहे. परिवार की दो पीढ़ियों के बीच अमेठी को लेकर एक अंतर साफ देखा जा सकता है. संजय गांधी 1977 में अमेठी से हारे लेकिन 1980 में जीत दर्ज करके वापसी दर्ज की. राहुल गांधी वहां से लगातार तीन जीत के बाद 2019 में हारे. लेकिन 2024 में वहां से हिसाब बराबर करने के लिए आगे नहीं आ सके.

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