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बिहार में सामाजिक और क्षेत्रीय संतुलन कायम रखने से चूकी BJP, विधानसभा चुनाव में नई जातीय गोलबंदी के आसार?

बिहार से मोदी 3.0 में आठ मंत्री बने हैं लेकिन कई जातियों को मंत्रिमंडल में जगह नहीं मिल पाना एनडीए के लिए विधानसभा चुनाव में परेशानी का सबब हो सकता है. लोकसभा में लालू प्रसाद और तेजस्वी यादव ने एनडीए के परंपरागत मतदाताओं को तोड़ने का जोरदार प्रयास किया था. इसमें वो आंशिक तौर पर कई जगहों पर सफल भी हुए हैं. लेकिन प्रधानमंत्री मोदी के तीसरे कार्यकाल में कुछ जातियों को मंत्रिमंडल में जगह नहीं मिल पाना बिहार में आगामी विधानसभा चुनाव के मद्देनजर चुनौतीपूर्ण हो सकता है.

लोकसभा चुनाव में महागठबंधन से आठ टिकट कुशवाहा को देना एक प्रयोग था जो लोकसभा चुनाव में आंशिक रुप से सफल हो पाया है. लालू प्रसाद ने इस प्रयोग की शुरूआत पहले दो चरण में औरंगाबाद और नवादा लोकसभा सीट पर की जिसमें वो औरंगाबाद में बीजेपी के चार बार के सांसद सुशील सिंह को हराने में कामयाब रहे हैं. लेकिन लालू प्रसाद का यही प्रयोग नवादा में आरजेडी के बागी उम्मीदवार की वजह से असफल हो गया है. लेकिन आरजेडी द्वारा औरंगाबाद, मुंगेर,नवादा ,और काराकाट में किया जाने वाला यह प्रयोग बीजेपी को शाहाबाद में औंरंगाबाद,काराकाट और आरा पर जोरदार शिकस्त दे गया.

कुशवाहा समाज को साधे रखना नहीं होगा आसान?

ज़ाहिर है शाहाबाद में एनडीए को मिली करारी हार की वजह राजपूत और कुशवाहा वोटों का एक दूसरे के खिलाफ वोट करना भारी पड़ गया. काराकाट में पवन सिंह इसकी वजह माने जाते हैं जबकि औरंगाबाद में लालू प्रसाद यादव ने अभय सिन्हा को उतारकर वहीं से इस खेल की शुरूआत कर दी थी.

लालू प्रसाद की नजर में लोकसभा चुनाव के जरिए विधानसभा का चुनाव है. इसलिए पूरे बिहार में ओबीसी समाज के दूसरे नंबर की हैसियत रखने वाले मतदाता कुशवाहा समाज पर डोरा डालने के लिए लालू प्रसाद ने आठ लोकसभा सीट पर महागठबंधन से प्रत्याशी उतारे थे. इनमें से सिर्फ दो विजयी हुए हैं लेकिन लालू प्रसाद और उनकी टीम अब इस समीकरण को विधानसभा चुनाव में मजबूत करने के लिए खूब प्रयासरत दिखेगी ये तय माना जा रहा है.

नीतीश-सम्राट के सामने असली चुनौती

नीतीश कुमार का आधार वोट बैंक कुर्मी और कुशवाहा समाज माना जाता रहा है. लेकिन पिछले लोकसभा चुनाव में कुशवाहा समाज ने एनडीए को छोड़कर महागठबंधन को वोट किया है. ये कई लोकसभा सीटों पर साफ नजर आया है. इतना ही नहीं बीजेपी में भी कुशवाहा समाज से आने वाले सम्राट चौधरी के नेतृत्व को लेकर कई सवाल उठते रहे हैं. लेकिन नीतीश कुमार हों या सम्राट चौधरी दोनों की असली परीक्षा विधानसभा चुनाव में ही होने जा रही है. नीतीश कुमार के नेतृत्व में चुनाव होगा ये तय माना जा रहा है जबकि बिहार बीजेपी के प्रदेश स्तर पर सम्राट चौधरी ही चेहरा होंगे ये भी तय है. ज़ाहिर है एनडीए की ओर से कुर्मी जाति से आने वाले नीतीश और कुशवाहा समाज से आने वाले सम्राट चौधरी विधानसभ चुनाव के लिहाज से दो बड़े चेहरे होंगे. लेकिन इन दोनों नेताओं के लिए इन सवालों से दो चार होना आसान नहीं होगा कि मोदी के तीसरे कार्यकाल में कुशवाहा समाज को एक भी सीट मंत्रिमंडल में क्यों नहीं दिया गया.

वैसे कहा जा रहा था कि जेडीयू को तीन मंत्रालय मिलता तो सुनील कुशवाहा को जगह मिल सकती थी. लेकिन बीजेपी और जेडीयू के कई बड़े नेता कहते हैं कि राज्य में सरकार के शीर्ष पदों पर कुर्मी और कुशवाहा समाज के ही नेता हैं. इसलिए लालू प्रसाद का दांव विधानसभा में ज्यादा चलने वाला नहीं है. बिहार बीजेपी के प्रवक्ता मनोज शर्मा कहते हैं कि दरअसल अब ये तय हो गया है कि अगला चुनाव नीतीश कुमार के नेतृत्व में ही लड़ना है जबकि दूसरे महत्वपूर्ण नेता के तौर कुशवाहा समाज के सम्राट चौधरी होंगे . इसलिए लालू प्रसाद की राजनीति ज्यादा सफल रहने वाली नहीं है ये तय मानिए. लेकिन आरजेडी के प्रवक्ता और तेज तर्रार नेता अजय कुमार सिंह कहते हैं कि एनडीए मंत्रिमंडल में जातिय समीकरण में संतुलन कहीं दिखाई नहीं पड़ता है. इसलिए बिहार की जनता आगामी विधानसभा चुनाव में इसे मुद्दा बनाकर वोट करेगी ये तय है.

राजपूत-रविदास समाज RJD के लिए अवसर

रविदास और राजपूत समाज को प्रतिनिधित्व नहीं दिए जाने को आरजेडी विधानसभा चुनाव में अवसर के तौर पर देख रही है. मुसहर समाज से जीतन राम मांझी और पासवान समाज से चिराग पासवान दो दलित के बड़े चेहरे केंद्र में मंत्री बनाए गए हैं. इसलिए आरजेडी रविदास को दरकिनार किए जाने की बात कर उन्हें साधने में जुट गई है. आरजेडी ने रविदास को साधने के लिए जमूई से अर्चना रविदास को टिकट देकर मैदान में भी उतारा था. लेकिन आरजेडी का यह प्रयोग जमूई में कामयाब नहीं हो सका है. वहीं कांग्रेस के उम्मीदवार मनोज कुमार को सासाराम से मिली जीत आरजेडी सहित इंडिया गठबंधन के लिए दलितों में राजनीति करने की उम्मीद छोड़ गई है. इसलिए आरजेडी रविदास समाज की बात कह अभी से ही उन्हें अपने पक्ष में करने पर आमदा दिखती है. गौरतलब है कि बिहार में दलित समाज की आबादी 15 फीसदी है . इसलिए मुसहर,पासवान के बाद रविदास ही वो आबादी है जिसपर आरजेडी विधानसभा के मद्देनजर नजरें गड़ाई हुई है.

यही हाल राजपूत समाज को लेकर भी है. यूपी में राजपूतों की नाराजगी परिणाम में नजर आई ये कहा जा रहा है. लेकिन बिहार से एक भी राजपूत को मंत्री नहीं बनाए जाने को लेकर आरजेडी रणनीति बनाने में जुट गई है. दरअसल बिहार में वैसे भी राजपूत समाज आरजेडी का बड़ा वोट बैंक पहले रहा है. लेकिन पिछले कुछ सालों में राजपूत आरजेडी को छोड़कर बीजेपी की तरफ शिफ्ट कर चुका था. लेकिन इस बार काराकाट,और बक्सर में राजपूत मतदाताओं का रवैया बीजेपी के पक्ष में कम और स्थानीय उम्मीदवार की तरफ ज्यादा दिखा. वहीं आर के सिंह जैसे कद्दावर मंत्री का हारना बिहार के राजपूत समाज को मंत्रिमंडल में जगह दिलाने में असरदार साबित नहीं हुआ. लेकिन आरजेडी के प्रवक्ता अजय सिंह कहते हैं कि राजपूत को मंत्रिमंडल में जगह नहीं मिलना एक समाज को नजरअंदाज करना है. इसलिए इसका खामियाजा विधानसभा चुनाव में बीजेपी को भुगतना ही पड़ेगा.

मिथिलांचल में गया गलत संदेश?

बीजेपी ने सतीश चद दूबे को मंत्री बनाकर ब्राह्मणों को प्रतिनिधित्व देने का प्रयास किया है. लेकिन मिथिला के ब्राह्मण बिहार की राजनीति में हिस्सेदारी को लेकर हमेशा से मुखर रहे हैं. कहा जा रहा है कि संजय झा मंत्री बनेंगे इसकी उम्मीद मिथिलांचल की जनता पाले हुई थी. लेकिन संजय झा को मंत्री नहीं बनाए जाने से मिथिलांचल में गलत संदेश गया है. मिथिलांचल पहले से ही एम्स और एयरपोर्ट के अलावा सेंट्रल यूनिवर्सिटी नहीं दिए जाने की वजह से नारजगी व्यक्त करता रहा है. ऐसे में संयज झा को मंत्री नहीं बनाया जाना आरजेडी के लिए मिथिलांचल में नया अवसर प्रदान कर गया है. आरजेडी के नेता मानते हैं कि मिथिलांचल के ब्राह्मणों में इसको लेकर नारजगी है क्योंकि मिथिलांचल के ब्राह्मण अपने आप को अन्य जगहों के ब्राह्णण से अलग मानते हैं. ज़ाहिर है आगामी विधानसभा चुनाव उस लिहाज से एनडीए के लिए चुनौतीपूर्ण होगा ये कहा जाने लगा है.

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