फिल्मों में ‘सर तन से अलग’… JAAT ने तो हद कर दी, आज के सिनेमा में वॉयलेंस का ये कैसा ट्रेंड?

रमेश सिप्पी पचास साल पहले 1975 में जब शोले लेकर आए थे उस वक्त की वह क्रूरतम हिंसा वाली फिल्म मानी गई थी. काफी बहसें चलीं. कहां जा रहा है हिंदी सिनेमा? जैसे सवाल उठाए गए. लेकिन सेंसर बोर्ड के निर्देश पर तब भी डायरेक्टर ने वॉयलेंस के हर सीन में बड़ी सूझ-बूझ के साथ संवेदना बचा ली थी. खून नहीं बहने दिया गया. मसलन गब्बर सिंह जब ठाकुर के दोनों हाथ काटने के लिए हथियार उठाता है और ठाकुर की चीख सुनाई देती है- ‘नायsss’, उसके बाद ना तो कटे हाथ को हवा में लहराते दिखाया जाता है और न खून से लथपथ ठाकुर. इसी तरह गब्बर जब ठाकुर के पोते पर बंदूक तानता है और ट्रिगर दबा देता है, उसके बाद अगले शॉट में ट्रेन का इंजन दिखाया जाता है. ना तो मासूम के शव के चीथड़े दिखाए जाते है और न उसके बदन को दागती गोली.
डायरेक्टर रमेश सिप्पी और राइटर सलीम-जावेद ने उन कट्स के बीच जिस तरह संवेदना बचा ली उन्हीं कट्स ने शोले को एक कालजयी सिनेमा बना दिया. लेकिन सनी देओल की जाट तक आते-आते फिल्मों में हाथ-पैर क्या, इंसानी सर को ही उसके तन से धड़ाधड़ अलग किया जा रहा है… और किसी को उस पर कोई ऐतराज नहीं. आखिर आज के सिनेमा में वॉयलेंस का ये ट्रेंड कहां से आया, जो धीरे-धीरे डेंजर होता जा रहा है?
सनी देओल को बुलडोजर बनाकर पेश किया
हाल के समय में साउथ के डायरेक्टर्स हिंदी फिल्मों के एक्टर को लेकर एक्शन और मार-धाड़ वाली फिल्में खूब बना रहे हैं. उसी कड़ी में जाट भी है. सनी देओल की जाट के डायरेक्टर गोपीचंद मालिनेनी हैं, तेलुगु सिनेमा में पहचान रखते हैं, करीब पैंतालीस साल के युवा फिल्ममेकर हैं, साल 2010 से फिल्में बना रहे हैं, अब तक करीब आठ फिल्में बनाई है, इनमें ज्यादातर एक्शन ड्रामा फिल्में हैं. अपनी तेलुगु फिल्मों में पर्दे पर अनगिनत गोलियां चलवा चुके हैं, खून-खराबा मचा चुके हैं. और अब इन्होंने बॉलीवुड के सुपर हीरो सनी देओल को लेकर पैन इंडिया एक्शन ड्रामा बनाया है.
एक जमाने में जो सनी देओल बहुत स्लो एक्टर कहे जाते थे, वे आज की तारीख में बुलडोजर एक्टर का खिताब पा गए हैं. उनके सामने जो दिख जाये, उन सब को वो उखाड़ सकते हैं. गदर वन में पहले हैंडपंप उखाड़ा, गदर टू में हाईटेंशन बिजली का खंभा उखाड़ा और अब जाट में छत से लटके पंखों से लेकर विशाल भवन के पाये तक को उखाड़ लेते हैं. इसीलिए इस फिल्म में सनी को बुलडोजर भी कहा गया है. ये बुलडोजर किसी भी दीवार को ध्वस्त कर सकता है. चलती जीप को रोक सकता है.
सिनेमा में सर काटने का असर कहां से आया?
जाट में सड़सठ साल के सनी देओल के इस रौद्र रूप से बढ़कर भी कई ऐसे सीन हैं जो हिंदी सिनेमा के भविष्य के लिए खतरे के संकेत हैं. हमारा सिनेमा किस हद तक हिंसा को चित्रित करने लगा है, वह चिंता जगाने वाला है. साल 2023 में आई रणबीर कपूर-बॉबी देओल की एनिमल ने जिस हिंसक दृश्यों को परोस कर लोकप्रियता बटोरी, अब उसके बाद आने वाली फिल्में उसके वॉयलेंस लेवल को पार करने लगी हैं.
होड़ इस बात की मची है कि कौन कितनी हिंसा दिखा सकता है. कौन कितनी गर्दनें उड़ा सकता है. एनिमल को भी तेलुगु सिनेमा के जाने माने नाम संदीप रेड्डी वांगा ने लिखा और डायरेक्ट किया था. पीठ में कटार आर-पार करने वाली हिंसा और लोमहर्षक भव्यता दिखाने की जो नई शुरुआत साल 2015 में आई प्रभास की बाहुबली से शुरू हुई, जाट में वह अपने शिखर पर जाता नजर आता है. कहना मुश्किल है कि ये कहां तक थमेगा.
पिछले दिनों एक फिल्म आई-स्त्री 2: सरकटे का आतंक. हालांकि यह एक कॉमेडी हॉरर फिल्म थी. फिल्म में एक सरकटा लोगों को डराता रहता है. हम उसे देखकर हंसते हैं. लेकिन इन एक्शन ड्रामा फिल्मों में सर काटने के सीन ने तो धड़कनें बढ़ा दी हैं. सिनेमा तो मोहब्बत का मेला होता है, मनोरंजन का मेगामॉल कहलाता है जिसमें प्रेम, इश्क, संवेदना, समाज, रिश्तों की बहुलता के साथ-साथ बेशक राजनीति और अपराध भी होते हैं लेकिन सर को तन से अलग करने वाला, एक ही साथ अनेकानेक लोगों के सीने और पीठ में धारदार हथियार घुसेड़ कर मौत के घाट उतारने वाला सिनेमा आखिर कितने दर्शकों के दिलों में जगह बना सकता है?
पराक्रम दिखाने के नाम पर खून ही खून
वैसे तो फिल्म जाट की कहानी बड़ी अनोखी है. इसके कथानक पर कोई सवाल इसलिए नहीं उठाया जाना चाहिए क्योंकि इसमें अपनी मिट्टी, अपना पानी, अपनी संपदा और अपने वतन का मुद्दा काफी प्रबल है. हमारी फिल्मों के पराक्रमी हीरो होते ही हैं इसलिए कि इनकी रक्षा करें. लेकिन अकेले हीरो सनी देओल और विलेन रणदीप हुड्डा के गुट में मचा संग्राम इतना बनावटी और वीभत्स हिंसा से पटा पड़ा है कि दर्शक कई जगहों पर उसे कोसने पर मजबूर हो जाते हैं.
फिल्म में रणदीप हुड्डा का किरदार जाफना टाइगर फोर्स के पूर्व उप कमांडर राणातुंगा का है जिसका संबंध एक आतंकवादी समूह से होता है. श्रीलंका से वह अकेले ही नहीं बल्कि अपने परिवार और अपने फोर्स के लड़ाकों को लेकर भी भारत में घुस आता है और हथियारों के बल पर यहां के कई गांवों पर कब्जा कर लेता है. गांव वालों को डराता है, उसे जान से मार देता है.
इस दौरान वह हिंसा का जैसा नंगा नाच दिखाता है वह चीख निकाल देने वाला है. अपने धारदार हथियारों से वह किसी के हाथ, किसी के पैर, किसी धड़ तो किसी की गर्दन उड़ा देता है. और ये सबकुछ पर्दे पर खुल्लमखुल्ला दिखाया जाता है. राणातुंगा फिल्म में कितनी हत्याएं करता है, इसकी गिनती नहीं की जा सकती. गांव में जो भी उसे जमीनें देने से मना करता है, वह उसका गला काट देता है. पर्दे पर खून से लथपथ सर को तन से अलग होते हुए दिखाया भी जाता है. एक बार नहीं, अनेक बार.
राणातुंगा की बीवी भी काटती है धड़ाधड़ गर्दनें
राणातुंगा बच्चों और महिलाओं को भी नहीं बख्शता. मां की गोद से बच्चे को छीन कर वह हाथ में लटकाकर चलता है तो ऐसा लगता है मानो जंगल में एक खूंखार जानवर किसी दूसरे जीव के बच्चे को लेकर भाग रहा हो. फिल्म में राणातुंगा ही नहीं बल्कि उसका भाई सोमुलु (विनीत कुमार सिंह), उसकी बीवी भारती (रेजिना कैसेंड्रा) और उसकी अम्मा (जरीना बहाव) भी हथियार चलाने में माहिर हैं. राणातुंगा की तरह उसकी बीवी भी अपने रास्ते में आने वाले गांव वालों की गर्दनें उड़ा देती हैं. किसी फिल्म में एक महिला किरदार के हाथों ऐसी क्रूर हिंसा शायद ही कभी देखने को मिली हो.
इसके बाद बारी आती है हमारे नायक जाट के पलटवार की. वह वास्तविक तौर पर जाट रेजिमेंट का ब्रिगेडियर है. नाम है- बलदेव प्रताप सिंह. इसीलिए वह फिल्म में बार-बार खुद को जाट, किसान, जवान कहता है और राणातुंगा जैसे देश के दुश्मनों को सबक सिखाने की बात करता है. जिस ट्रेन से वह चेन्नई से अयोध्या जा रहा है, वह रास्ते में किसी कारणवश रुक जाती है.
इसके बाद वह ट्रेन से उतर जाता है और भोजन के लिए पास किसी ढाबे पर जाता है, जहां से वह राणातुंगा के नेटवर्क में धीरे-धीरे प्रवेश कर जाता है और उसके काले कारनामे की जानकारी होती जाती है. लेकिन चौंकाने वाली बात ये कि आखिर में जब जाट राणातुंगा से बदला लेता है इस क्रम में वह भी उसके गुट के लोगों का गला उसी तरह से रेतने लगता है जैसे कि राणातुंगा ने तबाही मचाई थी.
गलाकाट हिंसा का डेंजर ट्रेंड कहां रुकेगा?
इस प्रकार जाट फिल्म में कितनी गर्दनों को काटते हुए दिखाया गया है, उसका कोई हिसाब नहीं है. सवाल उठना लाजिमी है फिल्मी पर्दे पर इस तरह से खून से लथपथ हिंसा दिखाने का जो चलन बढ़ता ही जा रहा है, वह हमारे सिनेमा को कहां लेकर जा रहा है. ये तो मनोरंजन का मर्डर है. ऐसी फिल्में जनमानस पर कैसा प्रभाव छोड़ती हैं और ये कितनी यादगार रहने वाली हैं. ये हाल केवल एनिमल या जाट तक सीमित नहीं. इन दोनों फिल्मों के बीच आई अनेक फिल्में ऐसी हैं जिनमें धड़ल्ले से पर्दे पर सर को तन को अलग करते हुए दिखाया गया है.
एनिमल के बाद आई किल ने तो ट्रेन के भीतर क्रूरता की हदें पार कर दी- पर्दे पर खून ही खून. इसके बाद निथिलन समिनाथन की फिल्म महाराजा, जिसमें अनुराग कश्यप ने भी अभिनय किया था या फिर सलमान खान की सिकंदर, जिसका निर्देशन भी दक्षिण के डायरेक्टर ए आर मुरूगादॉस ने किया, इन दोनों फिल्मों में गलाकाट हिंसा को दर्शाया गया था. यह डेंजर ट्रेंड कहां जाकर रुकेगा.