मायावती के सियासी उत्तराधिकारी आकाश आनंद क्यों नहीं भर पा रहे सियासी उड़ान?

बहुजन समाज पार्टी का राजनीतिक आधार चुनाव दर चुनाव सिकुड़ता जा रहा है. शोषित और वंचित समाज पर एकछत्र राज करने वाली बसपा का सियासी अस्तित्व खतरे में दिखाई दे रहा है. 2024 के लोकसभा के बाद महाराष्ट्र, हरियाणा और जम्मू-कश्मीर के बाद दिल्ली के विधानसभा चुनाव में बसपा अपना खाता नहीं खोल सकी. बसपा प्रमुख मायावती के सियासी उत्तराधिकारी और पार्टी के राष्ट्रीय कोआर्डिनेटर आकाश आनंद के अगुवाई में लड़े गए हरियाणा के बाद दिल्ली विधानसभा चुनाव में बसपा अपनी सियासी प्रभाव नहीं दिखा सकी.
महाराष्ट्र और झारखंड के बाद बसपा ने दिल्ली में अकेले मजबूती से चुनाव लड़ने का फैसला किया था, लेकिन यह दावा सिर्फ दावे तक ही सीमित रहा. दिल्ली की कुल 70 सीटों में से 69 सीटों पर बसपा ने अपने उम्मीदवार उतारे थे, लेकिन एक भी पार्टी प्रत्याशी अपनी जमानत तक नहीं बचा सके. बसपा के ज्यादातर प्रत्याशी तो एक हजार वोट भी पाने में नाकाम रहे. ऐसे में सवाल यह उठता है कि मायावती के सियासी उत्तराधिकारी आकाश आनंद बसपा को सियासी बुलंदी पर क्यों नहीं ले जा पा रहे हैं?
दिल्ली में बसपा को मिली करारी हार
दिल्ली की 69 सीटों पर बसपा ने अपने उम्मीदवार उतारे थे. इनमें से 53 सीटों पर बसपा को हजार वोट भी नहीं मिल सके. जबकि, 42 सीटों पर उसे नोटा से भी कम वोट मिले हैं. दिल्ली में बसपा को सबसे ज्यादा वोट देवली सीट पर 2581 वोट मिले थे जबकि सबसे कम वोट मटिया में महल 130 वोट मिले हैं. दिल्ली में बसपा का वोट शेयर भी पिछले विधानसभा चुनाव से कम हो गया है. बसपा को 2020 के चुनाव में 0.71 फीसदी वोट मिले थे और 2025 में उसे 0.58 फीसदी वोट ही मिल सके हैं.
बसपा का सियासी प्रयोग फिर फेल
बसपा का सियासी ग्राफ दिल्ली में लगातार गिरता जा रहा है जबकि एक समय दिल्ली में बसपा के 14 फीसदी वोट शेयर हुआ करता था और दो विधायक रहे हैं. ऐसे में बसपा ने दिल्ली में अपने सियासी आधार को पाने के लिए इस बार के चुनाव में 69 सीटों से 45 सीट पर दलित समाज से प्रत्याशी दिए थे. इसमें 12 सीटें दलित समुदाय के रिजर्व वाली हैं जबकि 33 सीटें अन रिजर्व वाली थीं. इस तरह से मायावती ने दिल्ली की 33 सामान्य सीटों पर भी दलित समुदाय को टिकट देकर अपने खिसकते हुए दलित वोटों को जोड़े रखने की कवायद की थी. इसके अलावा मुस्लिम बहुल सीटों पर दलित उम्मीदवार उतारे थे, लेकिन यह सियासी प्रयोग भी फेल रहा.
आकाश के अगुवाई में बसपा की हार
बसपा प्रमुख मायावती ने अपने भतीजे आकाश आनंद को पार्टी का नेशनल कोआर्डिनेटर और उत्तराधिकारी घोषित करते हुए उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड छोड़कर देश भर में पार्टी को मजबूत करने की जिम्मेदारी सौंपी थी. आकाश के अगुवाई में पहले बसपा हरियाणा चुनाव में गठबंधन कर उतरी थी और उसके बाद दिल्ली के चुनाव में अकेले किस्मत आयाजा था. इसके बावजूद पार्टी का कोई भी प्रत्याशी दोनों ही जगह जीत हासिल नहीं कर सका. बसपा को दिल्ली चुनाव से खासी उम्मीदें थी, लेकिन इस बार भी उसे निराशा हाथ लगी है. आकाश आनंद ने दिल्ली चुनाव में चार चुनावीं जनसभाएं भी कीं, लेकिन एक भी जगह पर पार्टी प्रत्याशी जमानत नहीं बचा सका.
दिल्ली विधानसभा चुनाव में करारी शिकस्त के बाद मायावती ने किसी की जिम्मेदारी तय नहीं की है. नतीजे घोषित होने के बाद उन्होंने सिर्फ यही कहा कि दिल्ली की जनता ने ‘हवा चले जिधर की, चलो तुम उधर की’ के तर्ज पर वोट देकर बीजेपी सरकार बना दी. बीजेपी के पक्ष में एकतरफा वोटिंग होने से बसपा सहित दूसरी पार्टियों को काफी नुकसान सहना पड़ा. उन्होंने बसपा कार्यकर्ताओं को दिए संदेश में कहा कि आंबेडकरवादियों को निराश होने की जरूरत नहीं है, क्योंकि उनके राजनीतिक संघर्ष को जातिवादी पार्टियां आसानी से सफल नहीं होने देंगी. ऐसे में आगे बढ़ने के लिए पूरे तन, मन, धन से लगातार जारी रखना है तभी यूपी की तरह बसपा के मूवमेंट को सफलता मिलेगी और बहुत कुछ बदलेगा.
आकाश क्यों नहीं भर पा रहे उड़ान
आकाश आनंद युवा हैं और आक्रामक तरीके से विपक्ष पर निशाना साधना भी बाखूबी जानते हैं, लोगों में उनकी अपनी लोकप्रियता भी है. इसके बाद आखिर आकाश आनंद बसपा के सियासी बुलंदी क्यों नहीं दे पा रहे हैं, जिसे लेकर सवाल उठने लगे हैं. राजनीतिक विश्लेषक सैयद कासिम कहते हैं 17 फीसदी दलित मतदाताओं के होने के बाद भी बसपा का प्रदर्शन नहीं सुधर रहा है तो पार्टी के लिए चिंता की बात है. मायावती ने आकाश आनंद को हरियाणा और दिल्ली चुनाव की जिम्मेदारी सौंपी थी, लेकिन पूरी तरह से नहीं बल्कि आधी- अधूरी. ऐसे में आकाश आनंद जरूर चेहरा थे, लेकिन न ही कैंडिडेट सेलक्शन की जिम्मेदारी उन्हें मिली और न ही अपनी स्टाइल में प्रचार करने की. ऐसे में आकाश आनंद क्या कर सकते हैं, बस उनके हिस्से में एक और नाकामी जुड़ गई है.
सैयद कासिम कहते हैं कि कांग्रेस जैसी पार्टी जिसने सालों से दिल्ली में हुकूमत की, वह भी इस समय अपना वोट प्रतिशत बढ़ाने के लिए जूझ रही है. मुकाबला जब सीधा होता है तो उसमें दूसरी पार्टियों का महत्व खतम हो जाता है. मतदाता भी अपना वोट बर्बाद करने के बजाय मुकाबले में मौजूद दो में से एक को अपना वोट देता है. दिल्ली में बसपा के साथ यही हुआ है.
देश में मौजूदा दौर गठबंधन की सियासत का है, लेकिन मायावती अकेले चुनाव लड़ने वाले फॉर्मूले पर चल रही हैं. ऐसे में आकाश आनंद चाहकर भी बसपा को न ही गठबंधन की राह पर ले जा पा रहे हैं और न ही पार्टी को जिता पा रहे. बसपा के अकेले चुनाव लड़ने से मतदाताओं में जीत का भरोसा कायम नहीं हो पा रहा. इसका खामियाजा बसपा को एक के बाद एक चुनाव में भुगतना पड़ रहा है. बसपा जिस यूपी में चार बार सरकार बनाई, वहां पर अकेले चुनाव लड़ने पर सिर्फ एक सीट ही जीत सकी. लोकसभा चुनाव में तो खाता भी नहीं खुला.
कम होता जा रहा है बसपा का ग्राफ
बसपा का कोर वोटबैंक दलित समुदाय हुआ करता था, जिसके दम पर राष्ट्रीय पार्टी का तमगा हासिल किया है. यूपी की सत्ता से बेदखल होते ही बसपा का ग्राफ कम होता जा रहा है, जिसका असर देशभर में उसके प्रदर्शन पर पड़ा है. दलित वोट बसपा से छिटकर दूसरे दलों के साथ चला गया है, जो मायावती के राजनीतिक तौर-तरीके से खुश नहीं है. आकाश आनंद चाहकर भी बसपा की राजनीति में कोई परिवर्तन नहीं कर पा रहे हैं, जिसके चलते बसपा को जीत का स्वाद भी नहीं चखा पा रहे हैं. उत्तर प्रदेश की सियासत में उसका जनाधार पहले से ही सियासी हाशिए पर है. अपने काडर को चुस्त रखने और संगठन में नई ऊर्जा की गरज से बसपा कोई बड़ा परिवर्तन नहीं कर पा रही.
2024 के लोकसभा चुनाव के बाद उत्तर प्रदेश की सियासी स्थिति बदल गई है. मायावती की पार्टी का खाता नहीं खुला और वोट शेयर कांग्रेस के वोट शेयर से भी नीचे आ गया था. कांग्रेस ने 17 लोकसभा सीटों पर लड़कर 9.46 फीसदी वोट शेयर पाया था,जबकि बसपा को 79 सीटों पर चुनाव लड़ने के बाद 9.39 फीसदी ही वोट पाई थी. बसपा को लोकसभा चुनाव में सबसे ज्यादा नुकसान इंडिया गठबंधन ने किया, क्योंकि दलित समुदाय का वोट सपा और कांग्रेस को मिला है. इससे पहले बसपा का वोट बीजेपी के हिस्से में जाता रहा. महाराष्ट्र, हरियाणा और दिल्ली विधानसभा चुनाव में दलित समुदाय की पहली पसंद बीजेपी बनी है, बसपा अपनी छाप नहीं छोड़ सकी.
बसपा अपने सियासी इतिहास में सबसे कठिन दौर से गुजर रही है. बसपा के पास उबरने के लिए कोई ठोस प्लान अभी तक नहीं दिख रहा. यही वजह है कि पार्टी अपनी कोशिशों को धार तक नहीं दे पा रही है. मायावती जिस तरह दूरी बनाए हुए हैं, उसके चलते बसपा पूरी तरह जमीन से कटती जा रही है. आकाश आनंद को भी खुलकर राजनीति करने की छूट नहीं है, जिसके चलते चाहकर भी वो कुछ नहीं कर पा रहे हैं. यही वजह है कि आकाश आनंद दोबारा से बसपा में नई जान नहीं फूंक पा रहे हैं.