बचपन में, महीने के पहले रविवार को बाल काटने के लिए सैलून में जाना अनिवार्य होता था. बचपन की यादों में इस कटिंग का अहम स्थान हैं. और अहम स्थान हैं, ‘माधव हेयर कटिंग सैलून का.
बचपन में बाल काटने की सारी यादें जुडी हैं, माधव हेयर कटिंग सैलून के साथ. जबलपुर के राईट टाउन में, चार नंबर गेट के पास की यह कटिंग की दुकान उस जमाने में संघी / जनसंघीयों का अपना स्थान था, ठिय्या था. जब जनसंघ के दीपक को कोई हाथ में उठाने के लिए तैयार नहीं होता था, तब इस कटिंग की दुकान में डंके की चोट पर जनसंघ की बात होती थी. जनसंघ का प्रचार होता था..!
यूं तो राईट टाउन का वह चार नंबर गेट का मोहल्ला, बड़े बड़े ‘नाम वाले’ लोग वहां रहने के बावजूद, उन दिनों कुछ बदनाम सा था. वैसे तो पूरे शहर में गुंडागर्दी कुछ ज्यादा ही थी. फिर चार नंबर गेट तो ‘इस क्षेत्र’ में पहुचे हुए लोगों का अड्डा था. सत्तर के दशक में बड़ा आतंक था, चार नंबर गेट का. एखाद खून भी भरे चौराहे पर हो गया था. तब तो कांग्रेस की तूती बोलती थी. सारे नामी गिरामी गुंडे भी कांग्रेस का नाम लेते थे. कांग्रेस का काम करते थे..! लेकिन किसी की कोई मजाल की माधव हेयर कटिंग सैलून में आकर कुछ बोल दे..! मां, बहने उस इलाके में बेख़ौफ़ घुमती थी. इस सैलून के मालिक माधव जी सेन का अपना दरारा था. नैतिक ताकत थी. बड़ी बड़ी मूछों वाले, हमेशा सफ़ेद पाजामा – कुर्ता पहनने वाले माधव सेन गजब की शख्सियत थे.
उनका हेयर कटिंग सैलून कोई बड़ा ताम झाम वाला नहीं था. वहां चमचमाते शीशे नहीं थे. न ही बालों को घुंगराले या सपाट करने वाले नए जमाने के औजार. लेकिन वहां ऐसा कुछ था, की मोहल्ले वाले वहां खींचे जाते थे.
और साब, रविवार की तो बात ही और थी. रविवार को वहां मैफल जमती थी. माधव जी जैसी ही बड़ी बड़ी मूंछे रखने वाले सी. व्ही. ठोसर वहां पहुचते थे. कभी कभार बाबुराव जी परांजपे का भी आना होता था. फिर राजनीति पे चर्चा शुरू होती थी. ये सब संघ – जनसंघ के निष्ठावान कार्यकर्ता थे. सैलून में एक मेज होता था. मेज पर पांचजन्य जरूर रहता था. उन दिनों पांचजन्य बड़े, टेबलॉइड आकार में आता था. बस ऊपर का मास्ट हेड लाल या भगवे रंग में. बाकी पूरा अंक श्वेत – श्याम. लेकिन वो पांचजन्य पढ़ा जाता था. उस पर चर्चा होती थी. दुकान में बैठे बाकी लोग सुनते थे. हम बच्चों के लिए कुछ चंदामामा वगैरा रहते थे. लेकिन फ़िल्मी पत्रिकाएं नहीं के बराबर..!
बच्चों को, सैलून की कुर्सियों के हत्थे पर, पटिया रख कर बिठाते थे. कैंची का कम और एक या दो नंबर की मशीन का ज्यादा प्रयोग होता था. सामने शीशा होता था. लेकिन उसमे पूरा दृश्य दिखने की कोई गारंटी नहीं होती थी. शीशे के दोनों तरफ, कांच पर आयल पेंटिंग से बने चित्र होते थे. खड़े में. नीचे बहती नदी, नदी के किनारे महल. उसपर मोर. मोर के पंखों पर एक वृक्ष. फिर नदी के दुसरे छोर पर रेलगाड़ी वगैरा…
मराठी के एक प्रख्यात लेखक थे – प्रकाश नारायण संत. इन्होने बच्चों के भावविश्व पर चार पुस्तके लिखी. बस, उन चार पुस्तकों में ही वे अमर हो गए. उस पुस्तक में उन्होंने कटिंग सैलून का वर्णन किया हैं. जब मैंने वह पढ़ा तो मुझे हमारा ‘माधव हेयर कटिंग सैलून’ सामने दिखा. मुझे बड़ा आश्चर्य लगा. प्रकाश संत जी ला लेखन हुबली / धारवाड़ के पृष्ठभूमि पर था. अर्थात सत्तर के दशक में जबलपुर के और हुबली / धारवाड़ के कटिंग सैलून एक जैसे थे..!
उन दिनों हम बच्चों को बड़ा होने का अनुभव कब होता था..? जब घर से मित्रों के साथ सिनेमा देखने के अनुमति मिलती थी तब..? या जब होंठों पर हलकी हलकी मूंछे आने लगती थी तब..? जी नहीं. जब माधव जी की कटिंग की दुकान में बाल कटवाते समय, कुर्सी के दोनों हत्थों पर डाली पटिया निकाल कर बोला जाता था, “बैठ जाओ कुर्सी पर..!” तब लगता था, हम सचमुच ही बड़े बन गए..!
‘माधव हेयर कटिंग सैलून’ में जाना अपने आप में एक अनुभव था और आकर्षण भी. वहां ममता भी थी. ठण्ड के दिनों में माधव जी खुद सिगड़ी पर पानी गरम करते थे और वह गरम पानी कान के पीछे लगाकर, वहां के बाल काटते थे. बच्चों के साथ वहां बड़े सम्मान से व्यवहार होता था. बचपन के अनेक रविवार मैंने वहां बितायें. भीड़ होती थी. अपना नंबर आने में समय लगता था. लेकिन उसका कोई दुःख नहीं होता था. कुछ न कुछ पढने के लिए रहता था. राजनीति पर होने वाली जोरदार चर्चा यह तो आकर्षण का केंद्र था ही. वो सैलून, यूं कहिये, हमारी पाठशाला थी..!
कॉलेज जाने लगा, तो पता नहीं कैसे, माधव हेयर कटिंग सैलून छुटता गया. आधुनिक ढंग से बाल बनाने का शौक चढ़ा था. फिर तो जबलपुर भी छुटा. अब जबलपुर में वापस आने के बाद भी माधव हेयर कटिंग सैलून में जाना नहीं होता. माधव जी सेन तो अब नहीं रहे. लेकिन वो सैलून आज भी हैं. रस्ता चौडीकरण मे उसका बडा सा हिस्सा टूट गया हैं.
जब कभी उस रास्ते से गुजरता हूँ, उस सैलून को देखकर गर्दन अपने आप झुक सी जाती हैं..!
– प्रशांत पोळ
(यह रिपोस्ट हैं. लगभग ४ वर्ष पहले लिखी थी. किन्तु इस शृंखला मे प्रासंगिक लगी, इसलिए फिर से दे रहा हूँ.)